कभी एक चिंगारी बन कर विद्रोहों की अगन जगाती
बन कर कभी मशाल समूचे वन उपवन केओ धधकाती है
सोये
चेतन
को शब्दो
की
दस्तक देकर रही उठाती
कलम हाथ में जब भी आती शिवम् सुन्द
गाती है
रम
विलग उँगलियों के
स्पर्शों
ने विलग नए आयाम निखारे
हल्दीघाटी और उर्वशी, प्रिय प्रवास
गीतम गोविन्दम
रामचरितमानस
सु
खसागर, ऋतु संहार से
मेघदूत तक
चरित सुदामा ओ
साकेतम
वेदव्यास का अभिन
विवेचन
एक और यह कलम सुनाती गाथा पूर्ण महाभारत की
और दूसरी और संदेसे गीता बन कर लाती है
बन जाती है कभी तमन्ना सरफ़रोश की आ अधरों पर
करती
है आव्हान कभी यह रंग
दे कोई बसंती चोला
कभी
मांगती है आहुतियां जीवन के
के अनवर
त
होम में
कभी अनछुए आयामों को सन्मुख लाकर इसने खोला
मासि की अंगड़ाई ज्वालायें भर देती है रोम रोम में
बलिदानों के दीप मंगली, संध्या भोर जलाती है
व्विद्यापति के छू भावो को करती है श्रृंगार रूप का
कालिदास के संदेशे को ले जाती है मेघदूत बन
अधर छुए जयदेव के तनिक और गीत गोविन्द कर दिए
निशा निमंत्रण मधुशाला बन इठलाई जब छूते बच्चन
दिनकर के आ निकट सिखाई रूप प्रेम की परिभाषाये
और दूसरी करवट लेकर यह हुंकार जगाती है
1 comment:
मासि की अंगड़ाई ज्वालायें भर देती है रोम रोम में
बलिदानों के दीप मंगली, संध्या भोर जलाती है
-अद्भुत!!
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