लिखे रोज ही गीत नए, कुछ द्विपदियां कुछ लिखता मुक्तक
लेकिन लगता छूट गये हैं पूरी कविता में कुछ अक्षर
शब्दों की संरचनाएं तो लगती रही सदा ही पूरी
और मध्य में भावों के भी सम्प्रेषण से रही न दूरी
मात्राओं ने योग पूर्ण दे, शब्दों का आकार संवारा
फिर भी लगता आड़े आई कहीं किसी के कुछ मज़बूरी
लय ने साथ निभाया पूरा, पंक्ति पंक्ति के संग संग चलकर
फिर भी लगता छूट गये हैं पूरी कविता में कुछ अक्षर
आंसू, पीर, विरह की घड़ियाँ , आलिंगन को तरसी बाँहें
लिए प्रतीक्षा बिछी हुई पगडण्डी पर जल रही निगाहें
पाखी की परवाजों के बिन, नीरवता में डूबा अम्बर
अपना पता पूछती पथ में, भटक रही जीवन की राहें
बनता रहा कथाएं इनकी, अहसासों के रंग में रंग कर
लेकिन फिर भी क्यों लगता है, हर कविता में छूटे अक्षर
शायद अभी समझ ना आये, अर्थ मुझे अक्षर अक्षर के
और शब्द ने भेद ना खोले, बदले हुए तनिक तेवर के
इसीलिये हर बार अधूरे रहे गीत कवितायें मेरी
उंगली पकड़ छन्द कोई भी चला ना साथ मुझे लेकर के
नई भोर आ नित देती है, संकल्पों की आंजुरी भरकर
फिर भी लगता छूट गये हैं पूरी कविता में कुछ अक्षर
2 comments:
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
सुंदर रचना
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