इस समय के सिन्धु का क्यों तीर लगता आज
सूना
हर लहर परिचय समेटे साथ अपने बह गई है
हर लहर परिचय समेटे साथ अपने बह गई है
दूर तक उच्छल तरंगो की
छिड़ीआलोड़नायें
हर घड़ी पर कर रहीं झंझाओं
का सर्जन निरन्तर
चक्रवातों से घिरे अनगिन भंवर चिंघाड़ते हैं
रोष का विस्तार बढ़ता जा रहा नीले गगन पर
चक्रवातों से घिरे अनगिन भंवर चिंघाड़ते हैं
रोष का विस्तार बढ़ता जा रहा नीले गगन पर
पर यहां तट पर बिछी हैं शून्य की
सिकतायें केवल
जो कि चर्चा क्षेत्र से अब हाशियों सी कट गई है.
जो कि चर्चा क्षेत्र से अब हाशियों सी कट गई है.
फेनिली अंगडाइयो में थम गए जो पल सिमट कर
आइना बन कर दिखाते घिर गया एकांत दूना
सीपियों के साथ कितने शंख सौपे ला लहर ने
किन्तु सब का साथ पा भी तीर लगता आज सूना
आइना बन कर दिखाते घिर गया एकांत दूना
सीपियों के साथ कितने शंख सौपे ला लहर ने
किन्तु सब का साथ पा भी तीर लगता आज सूना
अब करीलों के सरीखी नग्न हैं सारी दिशाएँ
रोशनी करती कभी जो पत्तियां वे झर गई हैं
रोशनी करती कभी जो पत्तियां वे झर गई हैं
वर्ष बीते है अगिनती सिंधु के इस तीर पर
से
धूल चुके है पर पगों के स्पर्श। के भी चिह्न सारे
ना विगत, ना आगतों का दीप कोई बालता अब
इक अधूरी सी प्रतीक्षा कर रहे सूने किनारे
धूल चुके है पर पगों के स्पर्श। के भी चिह्न सारे
ना विगत, ना आगतों का दीप कोई बालता अब
इक अधूरी सी प्रतीक्षा कर रहे सूने किनारे
साँझ की बढ़ती हुई निस्तब्धता आ मौन स्वर
में
तीर लगता आज सूना गुनगुना कर कह गई है
तीर लगता आज सूना गुनगुना कर कह गई है
1 comment:
साँझ की बढ़ती हुई निस्तब्धता आ मौन स्वर में
तीर लगता आज सूना गुनगुना कर कह गई है
अति सुंदर
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