इस पनघट पर तो छलकी हैं सुबह शाम रस भरी गगरैया
लेकिन प्राणों के आँगन में तृषा रही बाकी की बाकी
अधरों पर उग रही प्यास ने कितने ही झरने पी डाले
नदिया के तट से भी लौटा मन हर बार अतृप्ता रह कर
उगा अगत्स्यों वाला आतुर एक मरुस्थल तप्त ह्रदय में
कितनी ही सलिलायें आयीं नभ की गंगा से बह बह कर
नदिया के तट से भी लौटा मन हर बार अतृप्ता रह कर
उगा अगत्स्यों वाला आतुर एक मरुस्थल तप्त ह्रदय में
कितनी ही सलिलायें आयीं नभ की गंगा से बह बह कर
कितने सागर, कितने मीना गिनती जिनको जोड न पाई
रही ताकती शून्य क्षितिज पर लेकिन यह सुधियों की साकी
रही ताकती शून्य क्षितिज पर लेकिन यह सुधियों की साकी
कल तक था संतृप्त सभी कुछ तन भी मनभो दिशा दिशा भी
छलकाती थी मधुरस पल पल भीने सबंधों की गागर
तट की सिकता पर रांगोली खींचा करता साँझ सवेरे
मुक्ता मणि के अलंकरण से पुलकित हो हो कर रत्नाकर
छलकाती थी मधुरस पल पल भीने सबंधों की गागर
तट की सिकता पर रांगोली खींचा करता साँझ सवेरे
मुक्ता मणि के अलंकरण से पुलकित हो हो कर रत्नाकर
इस पनघट पर तो बिखरा था दूध दही कल तक कलशों से
पर उनका अब दूर दूर तक चिहं नहीं है शेष जरा भी
दोष नही कुछ इस पनघट का, पनिहारिन पनिहारे बदले
सोख लिया सारे स्रोतों को अभिलाषा की विष बेलों ने
संचय की सुरसा मुख जैसी बढ़ती रही निरन्तर स्पर्धा
और निगलते रहे पनपने से पहले ही अपने छौने
इस पनघट पर तो पुजती थीं नारी, देव नीर भरते थे
कल तक कथा सुनाया करती , दादी नानी मौसी, काकी
2 comments:
बेहतरीन
इस पनघट पर तो पुजती थीं नारी, देव नीर भरते थे
कल तक कथा सुनाया करती , दादी नानी मौसी, काकी
देव नीर भरते थे..बहुत सुन्दर भाव
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