एक किसी रससिक्त छन्द की अनबूझी तलाश में निशिदिन
रहे खोलते द्वार जालघर पर जाकर सँकरी गलियों के
चारों ओर झाड़ झंखाड़ोंसे भरपूर मिले बीहड़ वन
नभ से थल तक बिछी हुई थी बस विष की उच्छृंखल बेलें
अन्तहीन आमंत्रण आकर देते थे आवाज़ बिन रुके
उन्हें सराहें और सहेजने को अपनी सुधियों में ले लें
जितनी बार ढूँढने चाहे मार्ग दूर इनके व्यूहों से
उतनी बार बढ़े हैं घेरे कुछ कलुषित सी प्रवृत्तियों
के
बढ़ता कोलाहल पी लेता भावुकता के जल तरंग स्वर
मन की रीती गागर रीती, हर पनघट ने लौटा दी है
दूर क्षितिज तक कैनवास तो तना हुआ है टँगा फ़्रेम में
लेकिन प्रिज़्मों ने किरणों की आवेदनता ठुकरा दी है
आड़ी तिरछी रेखाओं को मानचित्र कह कर तलाशते
वे रस्ते जो गुम हो बैठे, साहित्यिक बारादरियों के
होती थीं जब अनायास ही गीतों में निमग्न संध्याएं
पोटोमक के तट पर गाया करती कोई सजल रागिनी
उसकी कोमल छुअन आज भी आ सुधियों को सिहराती हैं
मन होता आतुर है भर ले खुली बांह में झरी चांदनी
पर अब कृत्रिमता में ढूँढ़ें वैरागी आवारा नजरें
कभी फेसबुक पर मिल जाएँ, छंद नई गीतांजलियों के
2 comments:
नवप्रवृत्तियाँ किस प्रकार आकार ले रही हैं, मन तो पर बसा है पुरानी बातों में।
दिल डूडता है फिर वही________ ।
seetamni. blogspot. in
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