घिर रहे आश्वासनों के मेघ अम्बर में निरंतर
कल सुबह आ जाएगी फलती हुई आशाएं लेकर
ये अँधेरे बस घड़ी भर के लिए मेहमान है अब
कल उगेगा दिन सुनहरी धुप के संग में चमक कर
दे नहीं पाती दिलासा बात अब कोई ज़रा भी
प्राण से अतृप्त है, सारी धरा ही आज प्यासी
वायदों के सिंधु आकर रोज ही तट पर उमड़ते
और बहती जाह्नवी में हाथ भी कितने पखरते
रेत के पगचिह्न जैसी प्राप्ति की सीमाएं सारी
शंख के या सीपियों के शेष बस अवशेष मिलते
ज़िंदगी इस व्यूह में घिर हो गई रह कर धुँआ सी
एक कण मांगे सुध , सारी धरा ही आज प्यासी
घेरते अभिमन्युओं को, जयद्रथों के व्यूह निशिदिन
पार्थसारथि हो भ्रमित खुद ढूंढता है राह के चिह्न
हाथ हैं अक्षम उठा पाएं तनिक गांडीव अपना
आर ढलता सूर्य मांगे प्रतिज्ञाओं से बंधा ऋण
आज का यह दौर लगता गल्प की फिर से कथा सी
बूँद की आशा लिए सारी धारा ही आज प्यासी
पास आये हैं सुखद पल तो सदा यायावरों से
पीर जन्मों से पसारे पाँव , ना जाती घरों से
जो किये बंदी बहारों की खिली हर मुस्कराहट
मांगती अँगनाई पुषिप्त छाँह केवल पतझरों से
किन्तु हर अनुनय विवशता से घिरी लौटी पिपासी
प्यास योन बढ़ने लगी, सारी धारा है आज प्यासी
1 comment:
उम्दा!!
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