झाड़ियों में छुपे जुगनुओं की तरह
याद आये दिवस चन्द बीते हुए
भावना के जलद आ उमड़ने लगे
छलछलाते हुए कुछ थे रीते हुये
मन के भीगे हुए पृष्ठ को तूलिका
चित्र करती रही एक रजताभ से
बुर्जियों पे चढ़े दृश्य सहसा लगे
दूर बिलकुल नहीं हैं बहुत पास वे
अजनबी कशमकश में घिरे किन्तु हम
कुछ हवा में लकीरें बनाते रहे
झोलियां अपनी फ़ैली रहीं पए सभी
पल जो पहचानते दूर जाते रहे
दोपहर का दुशाला खड़ा ओढ़कर
दिन ठिठुरता रहा था कड़ी धूप में
रस्सियाँ सांझ की खींच पाई नहीं
जो सितारे गिरे रात के कूप में
भोर के प्रश्न पर चुप दिशायें रहीं
रंग अपना ही सिन्दूर ने पी लिया
नैन की देहरियों से रहा दूर ही
मुस्कुराती हुई यामिनी का पिया
कक्ष की भीत पर एक लटकी घड़ी
की सुई व्यर्थ चक्कर लगाती रही
सरसराती हुई पत्तियों से हवा
बात करती रही ड्यौढ़ियों पर रुके
देखते दूर से थे पखेरू रहे
बादलों की नई पालकी पर चढ़े
झर रही रोशनी भूमि छूते हुए
रँग गई द्वार पर चन्द रांगोलियाँ
आस बैठी रही पर भिखारिन बनी
खोल कर अपनी मैली फ़टी झोलियाँ
एक परछाईं अपना पता पूछने
पल में आती रही,पल में जाती रही
मोड़ वह रथ गुजर था जहाँ से गया
कोई आता नहीं है वहाँ अब कभी
चिह्न कोई नहीं शेष अब है वहाँ
जिस जगह दृष्टि कोई गिरी थी कभी
पंथ जो पांव से पनघटों तक बिछे
मांग उनकी नहीं कोई भी भर सका
कल्पना जब क्षितिज से चली लौट कर
द्वार आई नहीं,उसको नभ पी गया
शून्य से जोड़ बाकी गुणा भाग में
शून्यता ही महज हाथ आती रही
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