बाँध तोड़ यादों की सरिता मचल पडी

आज अचानक एक पुरानी  पुस्तक से
सूखी हुई फूल की पांखुर फिसल पडी
इन्द्रधनुष बन गये  हजारों हाथों में
बाँध तोड़ यादों की सरिता मचल पडी

यौवन की देहरी पर जब थी उम्र चढी
स्वप्न नयन के सभी हुए थे सिंदूरी
उड़ने लगी पतंगें बन कर आकांक्षा
सिमट गई नभ से मुट्ठी तक की दूरी
मन के वातायन में गाती थी कोयल
राजहंस के पंख उँगलियों पर रहते
अभिलाषा सावन सी झड़ी   लगाती थी 
और उमंगो के झरने अविरल बहते 

वे पल जब निश्चय नव होते थे प्रतिदिन
डगर चूमने पांवों को खुद  निकल पडी
इन्द्रधनुष बन गये  हजारों हाथों में
बाँध तोड़ यादों की सरिता मचल

कोई शब्द होंठ को आकर छूता था
अनजाने ही गीत नया बन जाता था
मन संध्या की सुरभि ओढ़ महकी महकी
बना पपीहा मधुरिम टेर लगाता था
बिना निमंत्रण रजनी की उंगली पकडे
तारे सपने बन आँखों में आते थे
और चांदनी के झूले पर चढ़ चढ़ कर
नभ गंगा के तट को जा छू आते थे


चित्र अजन्ता के बाहों में भर भर कर
एलोरा में टांगा करते घड़ी घड़ी
इन्द्रधनुष बन गये  हजारों हाथों में
बाँध तोड़ यादों की सरिता मचल पडी

कोई पत्र द्वार तक जब आ जाता था
चढ़ा डाकिये की खाकी सी झोली में
लगता था कहार कोई ले आया है
बिठला नई नवेली दुल्हन डोली में
खुले पत्र के साथ गूंजती शहनाई
घर में आँगन में देहरी पर गलियों में
नई रंगतें तब छाने लग जाती थीं
उगने से पहले आशा की कलियों में

बिन प्रयास जब सांझ सवेरे द्वारे पर
सजी अल्पनायें आकर चुपचाप कढ़ी
इन्द्रधनुष बन गये  हजारों द्वारे पर
बाँध तोड़ यादों की सरिता मचल पडी

रहती थी भावना ओस की बून्द बनी
बचपन से यौवन के नव अनुबन्ध पर
मन होता था व्याकुल जब अनजाने ही
उड़ी भावना की कस्तूरी गन्ध पर
रजत रश्मियां स्वर्ण किरण की बांह पकड़
टहला करतीं सुधियों के गलियारे में
नयनों की क्यारी में फूटा करते थे
अंकुर नूतन नहा नहा उजियारों में

बैठी रहती दीवाली खिड़की पर आ
होली रहती शीश झुकाए द्वार खड़ी
इन्द्रधनुष बन गये  हजारों द्वारे पर
बाँध तोड़ यादों की सरिता मचल पडी
 

 

1 comment:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा!!

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