भाव शब्द में जब ढलते हैं, तब तब गीत नया बन जाता
लेकिन मेरे भावों ने तो कर दी है हड़ताल आजकल
गति का क्रम कोल्हू के चारों ओर चल रहे बैलों जैसा
परिवर्तन की अभिलाषा के अंकुर नहीं फूट पाते हैं
हाथ उठा कर दिन का पंछी करे भोर की अगवानी को
उससे पहले लिये उबासी निमिष पास के सो जाते हैं
सिक्के ढाल ढाल किस्मत के, बदले थी जो विधि का लेखा
लिये हाथ में कासा फ़िरती चाँदी की टकसाल आजकल
रोज क्षितिज की दहलीजों पर सपनों की रांगोली काढ़े
चूना लिये दिवस का, गेरू सांझ उषा के रंग मिला कर
लीपा करती है अम्बर की अंगानाई को आस घटा से
और शंख सीपियां चमकती बिजली के ले अंश सजा कर
भ्रमित आस की दुल्हनिया का यह श्रंगार सत्य है कितना
कल तक जो बहले रहते थे, करते हैं पड़ताल आजकल
बदल रहे मौसम की अँगड़ाई में सब कुछ हुआ तिलिस्मी
पता नहीं चलता आषाढ़ी घटा कौन सी बरस सकेगी
हर इक बार बुझे हैं दीपक अभिलाषा के किये प्रज्ज्वलित
किसे विदित है द्रवित-प्यास इस मन चातक की कहाँ बुझेगी
जब से सुना हुआ दिन फ़ेरा करती यहाँ समय की करवट
जो मिलता कहता है पूरे होगये, बारह साल आजकल
1 comment:
behatreen..
9 saal to blog ke bhi pure ho liye ,,badhai
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