पर्वतों के ये शिखर उत्तुंग मधुरिम घाटियाँ ये
हिम चरण से जन्म लेते निर्झरों का गीत अनुपम
सिन्धु की आकाश से बतिया रही अविरल तरंगें
रच रहे हैं शंख सीपी, बालुऒ पर एक सरगम
इस प्रकृति ने मुग्धमन हो कर सजाया दृश्य अद्भुत
रूपशिल्पे ! आज यह सब एक तेरे ही स्तवन को
उपवनों में फूल की सजती कतारें रंग लेकर
और भंवरों का कली से बात कुछ चुपचाप कहना
पल्लवों का ओस पीकर घोलना उल्लास पल में
और फिर छूकर सुबह की रश्मियों को रंग भरना
प्रेरणे ! वातावरण ने आप ही यह सब सजाया
एक तेरी अर्चना को एक तेरे ही नमन को
नील नभ पर तैरते ये पाखियों से श्वेत बादल
आँजना काजल प्रतीची के नयन में आ निशा का
ओढ़ कर सिन्दूर प्राची का लजाते मुस्कुराना
भेज कर झोंके सुहावन मुस्कुरा उठना दिशा का
कल्पने ! हर दृश्य निखरा है मनोहर चित्र बन कर
एक तेरी दृष्टि की पारस परस वाली छुअन को
मलयजों की गंध लेकर केसरी पुंकेसरों ने
मार्ग में आकर सजाई हैं हजारों अल्पनायें
थाल ले अगवानियों के बाट को जोहे निरन्तर
देवपुर की खिड़कियों पर आ खड़ी हो अप्सरायें
पुष्पधन्वा ने मुदित हो पाँच शर संधान कर के
रचे तोरण और वन्दनवार तेरे आगमन को
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अद्वितीय बिम्ब
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