अभिव्यक्त करने के लिए भाषा नहीं है.

पंथ सारे सामने के धुंध में डूबे हुए हैं
मार्ग का हर चिह्न पीकर हंस रहे घिरते अँधेरे
नीड़ ने पाथेय की हर आस को ठोकर लगा दी
छोड़ कर देहरी निशा की उग नहीं पाते सवेरे
 
इस तरह की ज़िंदगी के मोड़ पर, असमंजसों से
कुछ उबर कर आ सकें ऐसी कोई आशा नहीं है
 
नित सजाते तो रहे हम थालियाँ पूजाओं की पर
अक्षतों ने रोलियों के साथ में मिल व्यूह खींचे
उड़ गया कर्पूर ले नैवेद्य का संचय समूचा
प्राण के घृत दीप   की बाती छुपी जा दीप नीचे
 
मन युधिष्ठिर हारता है ज़िंदगी की चौसरों पर
शकुनी जैसा मंत्रपूरित हाथ में पासा नहीं है
 
भाव उमड़े तो ह्रदय में, तीर तक लेकिन न पहुंचे
बात मन की शब्द में ढल कर नहीं आई अधर पर
फागुनी सतरंगिया होती उमंगें किस तरह से
मुट्ठियों से हर संजोया स्वप्न रह जाता बिखर कर
 
घुट गईं अनुभूतियाँ मन की घनी गहराइयों में
ज्ञान में अभिव्यक्त करने के लिए भाषा नहीं है.
 
भीड़ में चेहरा नहीं कोई कहीं जो द्रष्टि सोखे
लौट कर आती न मन राडार की भेजी तरंगें
अनमनी है साध अपुशी धूप के बीमार जैसी
मोरपंखी हो न पाती रंग खो बैठी उमंगें.
 
लुट चुके हैं कामना के शेष भी अवशेष होकर
एक रत्ती एक तोला एक भी माशा नहीं है

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