वातायन विहीन कमरों में साँसें ले पाना दूभर है
आतुर है मन उड़े गगन में इक उन्मुक्त पखेरू बन कर
दीवारों पर टिके हुये इक कृत्रिम नभ की परछाईं में
जहां सरसराहट पत्तों की करने में प्रवेश है असफ़ल
हवा लौट जाया करती है द्वारे तक आने से पहले
बिखरा जहाँ सदा रहता है निशा नयन से रिसता काजल
उस परकोटे की सीमा को आज तोड़ देने की चाहत
करता है मन, जहाँ नहीं आ पाता है अपनापन छन कर
उगते हुये दिवाकर की किरनें रह गईं अपरिचित जिससे
और दुपहरी जहाँ सदा ही शब्दकोश में सीमित रहती
अस्ताचल के पथ पर जाता सूरज का रथ ओझल होता
बर्फ़ें नहीं एकाकीपन की जहां तनिक भी नहीं पिघलती
उन अनदेखी जंजीरों को आज तोड़ देने को व्याकुल
यह मन चाहे, तरु की छाया रहे शीश पर साया बन कर
घड़ियों के काँटे से बाँधी हुई डोर से बन कठपुतली
करता हैं अभिनीत नित्य ही किसी और का निर्धारित क्रम
समझे जिनको अपने निर्णय,अपने निश्चय,अपनी राहें
अवचेतन में ज्ञात रहा है, यह सब केवल मन का है भ्रम
कितनी बार कोशिशें की हैं इक गुत्थी को सलझाने की
हर इक बार मिला है उत्तर केवल नया प्रश्न ही बन कर
2 comments:
अद्भुत!! क्या गजब .....चित्रण...शब्द तूलिका से!! वाह!
बड़ा मन करता है, प्रकृति में रम जाने का।
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