तुम्हें देख कर शब्द शब्द ने रह रह अपना किया आकलन
लगे जोड़ने रूप तुम्हारे से वे अपनी परिभाषायें
रक्तिम अरुण पीत आभायें नतमस्तक हैं पास तुम्हारे
चिकुरों की रंगत से अपना मांग रहे परिचय अंधियारे
मंदिर में बजती घंटी में घुली हुई सारंगी की धुन
लालायित है मुखर कंठ का स्वर होकर के उन्हें संवारे
सदियों के दर्पण में अपने प्रतिबिम्बों को देख रही हैं
रूप प्रेम की भोज पत्र पर लिखी हुई सारी गाथायें
मृगी मीन नीरज की आशा दें प्रतिरूप तुम्हारे लोचन
मंथन से प्राकट्य मोहिनी तुमसे ही मांगे सम्मोहन
पारिजात कचनार मोगरा जूही पुष्पराज सब सोचें
किसका भाग्य तुम्हारे तन को चूमे पाकर के अनुमोदन
स्वर्ण रजत के माणिक मुक्ता जड़े हुये सारे आभूषण
देह तुम्हारी आलिंगन में भर लेने की आस लगायें
पग की गति से बँधना चाहें सूरज चन्दा और सितारे
नक्षत्रों की दृष्टि तुम्हारी भॄकुटि भंगिमा को अनुसारे
मौसम की थिरकन रहती है बँधकर चूनर के कोरों में
उडे झालरी तब ही वह भी करवट लेकर पाँव पसारे
निशि वासर संध्या, अरुणाई उषा सब ही अभिलाषित हैं
सामौ सारथी के कर से तुम हाथ बढ़ा ले लो वल्गाएँ
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3 comments:
बेहतरीन! क्या क्या शब्द- क्या क्या बिम्ब है!! अद्भुत!! आप ही कर सकते हैं यह सब उपयोग...
ati-sundar
आपकी रचनायें पढ़ना एक अनुभव है..
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