कल्पना के जिस क्षितिज से शब्द यह तुमने बटोरे
बाँध लाये सन्दली जिस वाटिका से यह झकोरे
कुछ पता उनका हमें भी मित्र बतलाऒ कृपा कर
रख सकें हम शब्द अपने इस तरह से फिर सजा कर
सीखना तो है बहुत पर कोष क्षमता का तनिक सा
धैर्य रख कर तुम हमें बस नित्य सिखलाते रहो ना.
कुंजियां वे व्याकरण के खोलते हो द्वार जिनसे
कूचियां वे घोलते हो शब्द में ला स्वर्ण जिनसे
अंश उनका दो हमें या दो तनिक परछाईं ही बस
बुन सकें हम भी जरा सा शब्द में कोई मधुर रस
ज्ञात तुमको ज्ञात हमको मन निरा बंजर हमारा
किन्तु बन कर धार नदिया की हमारे पर बहो ना
ला सहज मधुपर्क हर इक बात में तुम घोलते जो
सरगमें जिनमें पिरोकर शब्द तुम हो बोलते जो
बून्द इक, आरोह औ अवरोह दो थोड़ा हमें भी
पा सकें रज एक कण अभिव्यक्तियों की देहरी की
जानते यह झोलियाँ संकीर्ण हैं सारी हमारी
पर हमारी प्राप्ति की लघुताओं को थोडा सहो ना
भावना के जिस घने वटवृक्ष की तुम छांव देते
नाव जिसको कल्पना के सिन्धु में तुम नित्य खेते
वे हमारे परिचयों के सूत्र से भी जोड दो अब
कर सकें सामीप्य उनका हम तनिक तो प्राण ! अनुभव
पंथ है लम्बा दिशायें हैं सभी हमसे अजानी
बोध देने तुम हमारी बाँह को आकर गहो ना
2 comments:
बहुत ही सुंदर सार्थक प्रस्तुती, आभार।
बहुत ही सुन्दर रचना..
Post a Comment