चलो हम आज फिर से याद की कुछ खिड़कियाँ खोलें
चलो देखें वही बस की प्रतीक्षा का सुनहरा पल
जहां थी उड गई सहसा तुम्हारी चूनरी धानी
गई थी छू कपोलों को मेरे बन पंख तितली के
कहा था कुछ,हुई मुश्किल वे सब बातें समझ पानी
वही इक दृश्य सपना कर नयन में आँज कर सो लें
पलट कर पृष्ठ वे खोलें नदी के रेतिया तट पर
लिखी थी पाँव के नख ने इबारत कोई धुंधली सी
किया इंगित टहोके से मुझे छू कर ज़रा हौले
बदन पर तैरती अब भी छुअन उस एक उंगली की
अधर फिर फिर यही कहते उसी अनुभूति के हो लें
चलो फिर खींच लें हम कैनवस पर गुलमोहर वोही
उगा था जो कपोलों पर तुम्हारे, दृष्टि चुम्बन से
छिड़ी जो थरथराहट से अधर की, जल तरंगों सी
उसे हम जोड़ लें मन कह रहा है आज धड़कन से
इन्हें हम डोरियों में दृष्टि की फिर से चलो पो लें
5 comments:
बेहद खूबसूरत! नयापन लिए!
सादर
बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती,आभार।
सब कुछ धीरे धीरे ढलना,
मन में मनस्वप्नों का पलना।
वाह।
बहुत ही सुन्दर!!
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