शब्द से होता नहीं है अब समन्वय भावना का
रागिनी फिर गुनगुनाये, है न संभव गीत कोई
खो चुकी है मुस्कुराहट, पथ अधर की वीथिका का
नैन नभ से सावनी बादल विदा लेते नहीं हैं
कंठ से डाले हुए हैं सात फ़ेरे सिसकियों ने
पल दिवस के एक क्षण विश्रांति का देते नहीं है
टूट बिखरी डोरियों के हाथ में टुकड़े उठा कर
बिम्ब से अपने अपरिचित हो ह्रदय की प्रीत रोई
हो गईं वर्तुल सभी रेखायें हाथों में खिंची जो
लौट क आईं वहीं पर थीं चलीं इक दिन जहाँ से
ज़िन्दगी के पंथ की सारी दिशायें दिग्भ्रमित हैं
है अनिश्चित जायेंगी किस ओर आईं हैं कहाँ से
दीप सब अनुभूतियों के टिमटिमा कर बुझ रहे हैं
आस सूनी, इक शलभ को कर सकेगी मीत, खोई
डँस गया है स्वप्न के वटवॄक्ष, फ़न फैलाये पतझर
दॄष्टि के नभ पर उगे हैं सैंकड़ों वन कीकरों के
बुझ गईं सुलगी प्रतीक्षा की सभी चिंगारियाँ भी
चिन्ह पांवों के न बनते पंथ बिखरे ठीकरों पे
धुन न गूँजे बांसुरी की, शुश्क कालिन्दी हुई है
और गगरी रिक्त, संचय का गँवा नवनीत रोई
2 comments:
अद्भुत अभिव्यक्ति, बस पढ़ते चले गये।
लाजवाब
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