देवता के दर्शनों की आस मैं लेकर खड़ा हूँ
द्वार मंदिर के नहीं पर खोलता है अब पुजारी
टोकरी में फूल भर कर साध की फुलवारियॊं के
थाल पूजा का सजाया प्राण का दीपक जला कर
साँस को कर धूप अपने स्वत्व का नैवेद्य रखकर
धड़कनों में घोलता हूँ आरती का मंत्र गाकर
एक निष्ठा ले तपस्यारत हुआ अविचल खड़ा हूँ
जानता हूँ साधना की यह डगर होती दुधारी
साध्य से बढ़कर नहीं हैएक साधक के लिये कुछ
किन्तु याचक के लिये आराध्य हर पत्थर नहीं है
दर्शनों पर है सदा अधिकार ही आराधकों का
किन्तु यह उपयोग में होता रहा अक्सर नहीं है
यदि नहीं हो देव कोई भी उपासक से उपासित
व्यर्थ होगी वह छवि जो नित्य ही जाती संवारी
सर्जना मन की सभी ही कल्पनाओं से उपजती
और फिर विश्वास करता प्राण का संचार उनमें
ठीकरे का मोल तो है कौड़ियों से भी कहीं कम
भावना का स्पर्श जड देता हजारों रत्न उनमें
रिस ना जाएँ आंजुरी में जो सहेजे द्वार पर हूँ
और धुंधली हो न जाएँ नैन में छवियाँ संवारी
2 comments:
मन के भाव बहुत गाढ़े हैं,
पत्थर में ईश्वर पा जाते।
बेहद सुन्दर कविता :)
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