आज तेईस अप्रेल की ये सुबह
ओढ़ कर जनवरी थरथराने लगी
सर्द झोंकों की उंगली पकड़ आ गई
याद इक अजनबी मुस्कुराने लगी
बादलों
की रजाई
लपेटे हुये
रश्मियां
धूप की
कुनमुनाती रहीं
भाप
काफ़ी के
मग से
उमड़ती हुई
चित्र
सा इक
हवा में
बनाती रही
हाथ
की उंगलियां
एक दूजे
से जुड़
इक
मधुर स्पर्श
महसूस करती
रहीं
और
हल्की फ़ुहारें
बरसती हुईं
कँपकँपी
ला के
तन में
थी भरती
गाड़ियों
की चमकती
हुई रोशनी
कुमकुमे से सड़क पे बिछाने लगी
रात सोये थे जो चाँदनी चूम कर
फूल जागे नहीं नींद गहरी हुई
दिन चढ़ा ये तो आकर घड़ी ने कहा
धुप लेकिन न पल भी फरहरी हुई हुई
एक ही चित्र प्राची ने खींचा था
जो
वो प्रतीची तलक था बिखर तन गया
सांझ के नैन की काजरी रेख में
क्या धरा क्या गगन, सब का सब रँग गया
एक महीना हुआ आये ऋतुराज को
कहते तारीख थी मुँह चिढ़ाने लगी
याद आने लगे शाल स्वेटर सभी
पिछले वीकऎंड पर थे उठा रख दिये
द्वार को खोल पेपर उठाया जरा
शीत ने मुख पे चुम्बन कई जड़
दिये
जल तरंगों सी धुन दांत ने छेड़
दी
रोम सब सिहरनों ने लगा भर दिये
कल का सूरज जरा गर्म हो जायेगा
आस बस एक ये ही सजा चल दिये
मेरे इंगित पे बस है तुम्हारा
नहीं
बोल कर ये प्रकृति खिलखिलाने
लगी
5 comments:
बहुत ही प्रभावी सुन्दर प्रस्तुति.
प्रकृति नचाती,
मद में नाचें,
हम जैसे ही,
खुश हो जाती।
आज की ब्लॉग बुलेटिन गुम होती नैतिक शिक्षा.... ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आज की ब्लॉग बुलेटिन गुम होती नैतिक शिक्षा.... ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत सुन्दर |
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Tamasha-E-Zindagi
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