बहती हुई भावनाओं के
प्रश्नो की इक भूलभुलैय्या
असमन्जस के तागे बुनती
रह रह कर ये पूछ रही है
अगर ना साथ भोर तक का था
तुम सपनो मे आये क्यों थे
बैसाखी से जोड़ जोड़ कर
पाले हुये रखी अधरों पर
कंठहार कलशी के अटकी
टँक कर रही हुई ईंडुर पर
प्यास धार के तृषित अधर की
सावन से यह पूछ रही है
अगर न कोष नीर का था ्सँग
नभ पर बादल छाये क्यो थे
मन की गंगोत्री से उमड़ा
हुआ भावनाओं का निर्झर
शब्दों में ढल जाया करता
संप्रेषण की आशा लेकर
छन्दों की धारा में बहता
शुर के तट से पूछ रहा है
अगर नहीं अनुभूत किये तो
गीत कहो ये गाये क्यों थे
अरुणाई के रंगों से रँग
भोर सांझ के दो वातायन
राग असावर से जयवन्ती
का वंसी पर होता गायन
सर्गम की उंगली को छोड़े हुये
स्वरों सेपूछ रहा है
अगर नहीं अवरोह ग्राह्य तो
फिर आरोह सजाये क्यों थे
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2 comments:
यदि इति का कोई भाव नहीं, अथ को रथ पर लाये क्यों थे।
अब जबकि ईंडुर का अर्थ जान चुका हूँ...इसे अद्भुत कहे बिना रहा नहीं जाता!
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