भोर हो गई

संध्या के बस्ते से पीली
दो नम्बर की पेन्सिल लेकर
किया गगन के नीले पन को
श्यामल उसका सुरमा घिस कर


और शरारत से मुस्का कर
रजनी हौले से यों बोली
देखूँ कैसे जीते मुझसे
ऊषा खेले आँख मिचौली


लेकिन ऊषा ने पेंसिल के
पीछे लगे रबर को लेकर
मिटा दिया सुरमाये पन को
प्राची की चौखट से घिस कर


दरवाजे की झिरी खोल कर
किरण झाँकती इक यह बोली
जीतेगी हर बार उषा ही
कितनी खेलो आँखमिचौली


कुहनी के धक्के से लुढ़की
मेज रखी पानी की छागल
छितराई बन ओस भोर की
खोल निशा की मोटी साँकल


हार मान रजनी ले गठरी
अपनी फिर कर गयी पलायन
भोर हो गई लगा गूँजने
नदिया तट पाखी का गायन.

7 comments:

Shardula said...

:) :) Jai Ho!

Rajendra kumar said...

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुती,आभार.
"जानिये: माइग्रेन के कारण और निवारण"

ब्लॉग बुलेटिन said...

आज की ब्लॉग बुलेटिन विश्व होम्योपैथी दिवस और डॉ.सैम्यूल हानेमान - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

ANULATA RAJ NAIR said...

सुन्दर,,,
बहुत ही सुन्दर गीत....
मनभावन...गुनगुनाने योग्य...

सादर
अनु

डॉ. मोनिका शर्मा said...

लेकिन ऊषा ने पेंसिल के
पीछे लगे रबर को लेकर
मिटा दिया सुरमाये पन को
प्राची की चौखट से घिस कर

Bahut Hi Sunder

Udan Tashtari said...

बेहतरीन......और बहुत दिन बाद सुनाई दिया...मेज रखी पानी की छागल :)

जिन्दाबाद!!

प्रवीण पाण्डेय said...

अहा, बहुत ही रोचक वर्णन, भोर होने का।

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...