हो गईं हैं बन्द बजनी घंटियाँ सब फोन वाली
डाक बक्से में कोई भी पत्र अब आता नहीं है
मौसमों की करवटें हर बार करती हैं प्रतीक्षा
किन्तु शाखा पर कोई पाखी उतर गाता नहीं है
ज़िन्दगी का पंथ मंज़िल के निकट क्यों है विजन वन
आज मन यह लग गया है आस्था से प्रश्न करने.
दृष्टि के वातायनों में चित्र बनते हैं अधूरे
सांझ की सारंगियों के साथ रोते तान पूरे
हर दिशा से भैरवी का उठ रहा आलाप लगता
स्वप्न में भी कोई कहता है नहीं आ पास छू रे
एक आशा भी निराशा की पकड़ उंगली खड़ी है
उम्र के वटवृक्ष से झरते दिवस कब पाये रुकने
दस्तकें दहलीज पर आकर स्मृति की थरथराये
द्वार के पट थाम लिखता मौन ही केवल, कथाएं
शून्य की चादर क्षितिज के पार तक विस्तार पाती
पास आते, हर घड़ी, लगता सहम जाती हवाएं
कट चुकी सम्बन्ध की हर इक नदी जो थी प्रवाहित
शेष हैं बस नैन की दो वादियों में चंद झरने
सिन्धु में इक पोत पर बैठा हुआ मन का पखेरू
आह भरता ताकता है भाव के संचित सुमेरू
साध का हो अंत रहता मरुथली बरसात जैसा
और अम्बर पर बिखर कर रह गया हर बार गेरू
फ्रेम ईजिल पर टंका छूटा नहीं है तूलिका को
उंगलियाँ उठ पायें इससे पूर्व लगती जाएँ झुकने
1 comment:
आस्था का प्रश्न गहरा,
किस तरह से तौल लेगी।
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