दे रहा है कोई दस्तक सांझ मन के द्वार आकर
लग गई गाने हवायें नाम कोई गुनगुना कर
एक अनचीन्ही छुअन सी पास आकर छेड़ती है
नैन के पट खोल देती और फिर फिर भेड़ती है
चित्रमय होकर पलक की सीढ़ियों पर खिलखिलाती
एक पल चुपचाप रहती दूसरे में टेरती है
मैं समझ पाता नहीं हूँ क्या ये वही संभाविता : है
मैं हुआ जिसका प्रतीक्षित रात दिन पलकें बिछाकर
गूँजती है दूर से बन बांसुरी आवाज कोई
फिर बुलाती पास कोई गंध सुधियों में समोई
दृष्टि के बारादरी में एक उत्कंठा उभरती
किन्तु प्रतिमायें रही हैं जा क्षितिज के पार सोई
अटकलें उलझी हुई असमंजसों के दायरे में
लग रहा है कोई चाहे थामना उंगली बढ़ाकर
प्यास के छींटे भिगोते चाहना को और बढ़ कर
अनमनापन और ज्यादा हो रहा प्रतिपल मचलकर
चित उछटता है निरन्तर साथ पल की धड़कनों के
दृष्टि टिकती है नहीं हर बिंदु से गिरती फ़िसल कर
फिर उभरने को हुआ आतुर ह्रदय में भाव कोई
और फिर से रह गया मन यह स्वयं में कसमसाकर
सुरमई नभ पर उभरते बादलों के चित्र जैसे
पत्तियों की सरसराहट बुन रही लगता संदेसे
रात की मुंडेर पर से चान्दनी की ले कमन्दें
कोई है आभास चढ़ता और गिरता आस पर से
दृष्टि हो यायावरी हर इक दिशा को खटखटाती
कोई पर देता नहीं पहचान द्वारे पर सजा कर
2 comments:
बहुत ही सार्थक प्रस्तुतीकरण.
बड़े प्यारे शब्द, उतने प्यारे भाव व प्रवाह
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