इसे गीत कह दो या कविता बताओ
मेरा योग इसमें नहीं है जरा भी
लिखे शब्द जो शब्द की साधना में
वही शब्द बस साथ मेरे हुये हैं
कभी जिनको आशीष ने छू लिया था
वही भाव बस मुझको घेरे हुये हैं
उन्हें व्याकरण से परे छन्द ने था
उठा कर किसी एक क्रम में सजाया
बिना ज्ञान के और परिमार्जनों के
वही कंठ में आ मेरे गुनगुनाया
जिसे चाहो वह रंग इन पर चढ़ा लो
हरा लाल केसर या पीला गुलाबी
खुले होंठ पर थरथरा रह गई जो
कभी अर्थ अपना नहीं बात पाई
ना चढ़ पाई थी तार की गोख तक जो
नहीं रागिनी ने जरा गुनगुनाई
उसी बात को शब्द के कैनवस पर
चढ़ा कर नये रंग भरने लगा हूँ
नई एक सरगम धुनों में सजाकर
वही एकलय गीत करने लगा हूँ
इसे भावना का कहो क्रम निरंतर
या बादल के पट से बिखरती विभा सी
नयन की गली में टंगे अलगनी पर
सपन चुनरी की तरह फरफराते
कोई स्पर्श जिनके निकट आ ना पाया
हवा की तरह भी कभी आते जाते
उन्हें छंद के चाक पर मैं चढ्क्षाकर
नया एक आकार देने लगा हूँ
दिशा बोध की इक उफनती नदी में
उन्हें साथ लेकर मैं बहाने लगा हूँ
इसे चाहे उन्माद का नाम दे लो
छुअन या कि अपनत्व की है ज़रा सी
2 comments:
शब्दों से क्यों मोह गाँठना,
बोलेंगे वे अपने मन की।
गीत हो चाहे कविता पर भाव तो निराले हैं,बेहतरीन प्रस्तुति.
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