दोपहर से आँख मलता है दिवस लेते उवासी
सांझ हो पाती नहीं है और थक कर बैठ जाता
सीढ़ियों पर पांव रखता है अधर की सकपकाते
इसलिये ही शब्द छूता ना स्वरों को,लड़खड़ाता
वृत्त में चलती हुई सुईयाँ घड़ी की - ज़िन्दगी है
केन्द्र से जो बँध न रहलें,खूँटियाँ मिलती नहीं हैं
आस सूनी मांग ले पल के निधन पर छटपटाती
कामना की झोलियाँ फिर कल्पना के द्वार फ़ैला
फिर वही गतिक्रम,विखंडित स्वप्न कर देता संजोये
और टँगता कक्ष की दीवार पर फिर चित्र पहला
है वही इक पीर,घटनाक्रम वही, आंसू वही हैं
और अब नूतन कहीं अनुभूतियाँ मिलती नहीं हैं
होलियाँ, दीवालियाँ एकादशी और’ पूर्णिमायें
कौन कब आती नजर के दूर रह कर बीत जाती
सावनी मल्हार फ़ागुन की खनकती थाप ढूँढ़े
कोई भी पुरबा ई मिल पाती नहीं है गुनगुनाती
द्वार के दोनों तरफ़ हैं पृष्ठ कोरे भीतियों के
रँग सकं उनमें कथानक,बूटियाँ मिलती नहीं है
2 comments:
श्रंखला हर एक तोड़ी,
मध्य में,
जानने को,
क्या जो उसको जोड़ता है।
लुप्त हो जाता,
हर बार सहसा।
है वही इक पीर,घटनाक्रम वही, आंसू वही हैं
और अब नूतन कहीं अनुभूतियाँ मिलती नहीं हैं
vaah!!
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