सांझ अटक कर चौराहे पर पीती रही धुंआ ज़हरीला
बूढ़े अम्बर का जर्जर तन हुआ आज कुछ ज्यादा पीला
पीर पिघल कर बही नयन से घायल हुई घटाओं की यों
पगडंडी का राज पथों का सब ही का तन मन है गीला
बान्धे रहा राजहठ लेकिन पट्टी अपने खुले नयन पर
कहते हुये चिह्न उन्नति के हैं ये, सब कुछ ठीक ठाक है
मौसम की करवट ने बदले दिन सब गर्मी के सर्दी के
बसा लिया है सावन ने अब अपना घर सूने मरुथल में
सिन्धु तीर पर आ सो जातीं हिम आलय से चली हवायें
नीलकंठ का गला छोड़कर भरा हलाहल गंगा जल में
निहित स्वार्थ के आभूषण से शोभित प्रतिमा के आराधक
ढूँढ़ा करते दोष दृष्टि में, कहते दर्पण यहाँ साफ़ है
कर बैठी अधिकार तुलसियों के गमलों पर विष की बेलें
खेतों में उगती फ़सलों की अधिकारी हैं अमरलतायें
भूमिपुत्र मां के आंचक्ल को हो होकर व्याकुल टटोलते
प्राप्त किन्तु हो पातीं केवल उसको उलझी हुई व्यथायें
जिनका है दायित्व सभी वे हाथ झाड़ अपने कह देते
जो पीड़ित है उसे जनम का पिछले कोई मिला श्राप है
धरा टेरती जिसको वो ही इन्द्रसभा में जाकर बैठे
दृष्टिकिरण घाटी में आती नहीं जहां से कभी उतर कर
गंधर्वों के गान अप्सराओं की किंकिणियों के स्वर में
कतिपय आश्वासन रह जाते होठों पर चुप्पी धर धर कर
लेकिन जिस पल धैर्य सुराही आतुर हुई छलक जाती है
सोचा करते तब जाने क्या हमने आखिर किया पाप है
1 comment:
हमें खटकता है, विकास का यह स्वरूप,
वह हँस कर कहते हैं, सब ठीक ठाक है।
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