आपके होंठ से जो फ़िसल कर गिरी
मुस्कुराहट कली बन महकने लगी
रंगतों ने कपोलों की जो छू लिया
तो पलाशों सरीखी दहकने लगी
स्वप्न की क्यारियाँ, पतझरी चादरें
ओढ़ कर मौन सोई हुईं थीं सभी
आपकी गंध ने आ जो चूमा इन्हें
पाखियों की तरह से चहकने लगी<
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सूर्य को अर्घ्य थे आप देते हुये
सूर्य को अर्घ्य थे आप देते हुये
अपने हाथों में जल का कलश इक लिये
मंत्र का स्वर उमड़ता हुआ होंठ पर
एक धारा के अभिनव परस के लिये
बन्द पलकों पे उषा की पहली किरन
गाल पर लालिमा का छुअन झिलमिली
दृष्टि हर भोर अपनी उगाती रही
बस उसी एक पल के दरस के लिएय.
1 comment:
बहुत ही सुन्दर गीत..
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