कल्पवृक्ष की कलियों ने जब पहली बार नयन खोले थे
पुरबाई के झोंके पहली बार नाम कोई बोले थे
प्रथम बार उतर कर गिरि से नदिया कोई लहराई थी
पहली बार किसी पाखी ने जब उड़ने को पर तोले थे
हुलस गए हैं वे सारे पल आकर के मेरी नस नस में
दृष्टि तुम्हारी से टकराए मीत नयन जब जाकर मेरे
पिघली हुई धूप छिटकी हो आकर जैसे ताजमहल पर
क्षीर सिन्धु में प्रतिबिंबित हो कर चमका जैसे पीताम्बर
हिम शिखरों पर नाच रही हो पहली किरण भोर की कोई
थिरक रही हों सावन की झड़ियाँ जैसे आ कर चन्दन पर
लगा ओढ़ कर बासंती परिधान तुषारी कोई प्रतिमा
अंगनाई में खडी हो गई अनायास ही आकर मेरे
सुधियों में यूँ लगा सुधायें आकर के लग गई बरसने
भावो के कंचन को कुन्दन किया किसी अनुभूत छुअन ने
सांसों के गलियारे में आ महक उठीं कचनारी कलियाँ
पल पल पुलकित होती होती धड़ाकन धड़कन लगी हरषने
लगे नाचने सरगम के सातों ही सुर आकर बगिया में
तुमने उनको जरा सुनाया जब गीतों को गाकर मेरे
मिलीं दिशायें ज्योंकि उपग्रही संसाधन से हो निर्देशित
अकस्मात ही अर्थ ज़िन्दगी के कुछ नये हुए अन्वेषित
लक्ष्य, साध के ध्येय प्रेम के आये समझ नये फिर मानी
जीवन का हर गतिक्रम होने लगा तुम्हीं से प्रिय उत्प्रेरित
गुँथे आप ही आप सुशोभित होकर के इक वरमाला में
जितने फूल सजाये तुमने गुलदानों में लाकर मेरे
5 comments:
भावों को कितना सुन्दर ढंग से सजाया है।
आनन्द आ गया भाई जी...
भावों को बहुत सुन्दर शब्द दिए हैं ..सुन्दर गीत
वाह! वाह! बहुत सुन्दर लयबद्ध गीत...
सादर बधाई...
मिलीं दिशायें ज्योंकि उपग्रही संसाधन से हो निर्देशित
अकस्मात ही अर्थ ज़िन्दगी के कुछ नये हुए अन्वेषित
लक्ष्य, साध के ध्येय प्रेम के आये समझ नये फिर मानी !
जीवन का हर गतिक्रम होने लगा तुम्हीं से प्रिय उत्प्रेरित !!
कुछ अजीब सा,अनबूझा सा एहसास....!!
जो अपना है...!!
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