तुमको अगर चले जाना था
राहों में अंधियारा भर के
संझवाती का तो फिर तुमने
मंगल दीप जलाया क्यों था
मुट्ठी भरे गगन पर अपने
स्वीकृत मुझको रही घटायें
चाहा नहीं भटक कर राहें
ही आ जायें चन्द्र विभायें
मैं व्यक्तित्वहीन सिकता का
अणु इक चिपका कालचक्र से
अपने तक ही सीमित मैने
रखीं सदा निज व्यथा कथायें
तुमने नहीं ढालना था यदि
अपने सुर की मृदु सरगम में
मेरे बिखरे शब्दों को फिर
तुमने गीत बनाया क्यों था
बदलीं तुमने परिभाषायें
एक बात यह समझाने को
चुनता है आराध्य,तपस्वी
अपनी पूजा करवाने को
राहें ही देहरी तक आतीं
पा जातीं जब नेह निमंत्रण
बादल भी आतुर होता है
नीर धरा पर बरसाने को
जो तपभंग नहीं करना था
मेरे विश्वामित्री मन का
तो फिर कहो मेनका बनकर
तुमने मुझे रिझाया क्यों था
नियति यही थी सदा रिक्त ही
रही मेरी कांधे की झोली
एक बार भी सोनचिरैय्या
आकर न आँगन में बोली
किस्सों में ही पढ़ी धूप की
फैली हुई सुनहरी चादर
धुन्ध कुहासे दिखे लटकते
जब भी कोई खिड़की खोली
तुमको नींद चुरा लेनी थी
मेरी इन बोझिल रातों की
तो पलकोंपर सपने का भ्रम
लाकर कहो सजाया क्यों था
4 comments:
दीप जले हैं, हृदय खिले हैं,
तुमको आज नहीं जाना था।
कितना सुन्दर गीत...कितना दुःख समेटे ...पर बहुत मधुर !
तुमको अगर चले जाना था
राहों में अंधियारा भर के
संझवाती का तो फिर तुमने
मंगल दीप जलाया क्यों था
bahut sundar Rakesh ji
saadar
गीत
प्रणय की प्रेरणा विछोड़े की वेदना
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