अधलिखी कोई रुबाई गुनगुनाता जा रहा हूँ.

बन्द द्वारे से पलट कर लौट आते स्वर अधर के
दॄष्टि के आकाश पर आकर घिरीं काली घटायें
थाम कर बैठे प्रतीक्षा को घने अवरोध के पल
लीलने विधु लग गया है आज अपनी ही विभायें

किन्तु मैं दीपक जला कर आस की परछाईयों में
अधलिखी  कोई रुबाई गुनगुनाता जा रहा हूँ.

सिन्धु मर्यादाओं के तट्बन्ध सारे तोड़ता सा
बिछ रहा आकाश आकर के धरा की पगतली में
राजपथ को न्याय के जो पांव आवंटित हुए थे
रह गये हैं वे सिमट कर के कुहासों की गली में

किन्तु मैं निज को बना कर यज्ञकुंडों की लपट सा
दर्पणों में साध के बस झिलमिलाता जा रहा हूँ

उत्तरों की सूचियों का नाम लेकर प्रश्न बैठे
दोपहर ने ढूँढ ली है छांह निशि की चूनरी में
रक्तवर्णी पंकजों के पात सारे झर चुके हैं
आज  मणियाँ हो गईं मिश्रित  समर्पित घूघरी में

और मैं भटके हवा की डोर में अटके तृणों सा
बिन किसी कारण कोई गाथा सुनाता जा रहा हूँ

हैं उजालों के मुखौटे ओढ़ कर आते  अंधेरे
दे रहा इतिहास रह रह दंश अनगिनती दिवस को
वे अधर जो जल चुके हैं एक दिन पय स्पर्श पाकर
चाहते तो हैं नहीं पर थामते प्याला विवश हो

और मैं धुंधलाये पन्ने धर्मग्रंथों के उठाकर
दिन फ़िरेंगें, ये दिलासा ही दिलाता जा रहा हूँ
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2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

धैर्य असीमित, शुभ आयेगा।

विनोद कुमार पांडेय said...

राकेश जी, प्रणाम

यह मेरी विवशता थी की कई दिनों से ऐसी सुंदर,भावपूर्ण और प्रेरणादायक कविताओं से वंचित रहा..आज आया और बस खो गया...अत्यंत सुंदर भाव समेटे एक बेहतरीन रचना.. यज्ञकुंड,धर्मग्रन्थ जैसे शब्दों का प्रयोग कर आपने कविता को एक नयापन दिया है जो आपको कवियों की एक नई श्रेणी में ला कर खड़ा कर देती है..

आपने विलक्षण शब्दों को भी बोलचाल के शब्द बना दिए..इस कविता के माध्यम से....बहुत बहुत धन्यवाद...प्रणाम स्वीकारें

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