धुन अविराम बजाता जाउँ

इससे पहले माना जाऊं मैं अपराधी चुप रहने का
तुमको अपने मन की बातें चलो आज बतलाता जाऊं

भावों का सावन शब्दों की गागरिया में भरा सहेजा
अश्रु स्रोत पर रखी सांत्वना स्वप्न पुष्प में सजा सजा कर
गंधों की झालरी हवा में बुनी एक मनमोहक सरगम
और निरंतर छेड़ा उसको अभिलाषा में बजा बजा कर

लेकिन अब तक मिली नहीं है एक अनूठी वही रागिनी
उतर आये उंगली पर जिसको मैं अविराम बजाता जाऊं

गज़लें आकर लहराई हैं सुबह शाम अधरों पर मेरे
कतओं ने नज्मों ने मन के द्वारे आकर दी है दस्तक
दोहे मुक्तक और सवैये लिए पालकी नवगीतों की
कविताओं का एक सिलसिला रहा होंठ से मेरे मन तक

लेकिन ऐसा एक गीत वह आकर संवरा नहीं स्वयं ही
जो अधरों का साथ न छोड़े और जिसे मैं गाता जाऊं

हाथों में आ कलम शब्द के चित्र नये कुछ रँग देती है
नये रंग में घोल भावना रच देती है एक कहानी
लिखते निंदिया के झुरमुट में उगते हुए स्वप्न के जुगनू
खिलती हुई उमंगों कहतीं सुधियों में फ़ैली वीरानी

लेकिन कोई एक कहानी पूरी नहीं कलम कर पाती
जिसको चौपालों पर जाकर मैं हर शाम सुनाता जाऊँ

कलाकार को रहा अपेक्षित कोई करे प्रशंसा उसकी
और बोध के निर्देशन से दिशा पूर्णता की दिखलाये
संशय की धुंधों में डूबी हुई मनस्थितियों में आकर
दिनकर की किरणों से खोले पट को औ’ प्रकाश छितराये

कभी योग्यता का भ्रम होता, तो आईना कह देता है
पहले पूण स्वयं को कर लूँ, फिर कमियां जतलाता जाऊँ

3 comments:

Udan Tashtari said...

अपराधी तो बाद में माने जायेंगे, चुप रहने कहां देंगे हम

जो कुछ भी कहेंगे आप, गीत होंगे, वो छाप यहां देंगे हम.


-बेहतरीन भाव..बढ़िया गीत.

अजित गुप्ता का कोना said...

राकेश जी उत्तम गीत बन पडा है। बधाई।

प्रवीण पाण्डेय said...

स्वयं को पूर्ण करने के प्रयास, इतनी सुन्दर और ओजस्वी कवितायें सामने ले आती हैं।

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