जो कहानी लिखी थी गई रात भर

थी धुंधलके मे रजनी नहाये हुए
चांदनी चांद से गिर के मुरझाई सी
आंख मलती हुई तारकों की किरण
ले रही टूटती एक अँगड़ाई सी

कक्ष का बुझ रहा दीप लिखता रहा
सांझ से जो शुरू थी कहानी हुई
लड़खड़ाते कदम से चले जा रही
लटकी दीवार पर की घड़ी की सुई
फ़र्श पर थी बिछी फूल की पाँखुरी
एड़ियों के तले बोझ से पिस रही
टूटती सांस की डोरियां थाम कर
खुश्बुओं से हवाओं का तन रंग रही

और खिड़की के पल्ले को थामे खड़ी
एक प्रतिमा किसी अस्त जुन्हाई की

शून्य जैसे टपकता हुआ मौन से
एक निस्तब्ध पल हाथ बाँधे ख्ड़ा
गुनगुनता रहा एक चंचल निमिष
जो समय शिल्प ने था बरस भर गढ़ा
बिन्दु पर आ टिका सॄष्टि के, यष्टि के
पूर्ण अस्तित्व को था विदेही किये
देहरी पर प्रतीक्षा लिये ऊँघते
स्वप्न आँखों ने जितने थे निष्कॄत किये

गंध पीती हुई मोतिये की कली
बज रही थी किसी एक शहनाई सी

डूबते राग में ऊबते चाँद को
क्या धरा क्या गगन सब नकारे हुए
एक अलसाई बासी थकन सेज पर
पांव थी बैठ, अपने पसारे हुए
रिक्तता जलकलश की रही पूछती
तॄप्ति का कोई सन्देश दे दे अधर
ताकता था दिया क्या हो अंतिम चरण
जो कहानी लिखी थी गई रात भर
भोर की इक किरन नीम की डाल पर
आके बैठी रही सिमटी सकुचाई सी

4 comments:

Udan Tashtari said...

ताकता था दिया क्या हो अंतिम चरण
जो कहानी लिखी थी गई रात भर
भोर की इक किरन नीम की डाल पर
आके बैठी रही सिमटी सकुचाई सी


-पुनः एक अद्बुत गीत...सीधा दिल में उतर गया!! वाह!! रकेश भाई!

विनोद कुमार पांडेय said...

राकेश जी...पढ़ते पढ़ते डूब जाता हूँ.. भाव इतने सशक्त होते है की की कविता दिल में बस जाती है...यह प्रस्तुति भी लाज़वाब..धन्यवाद आपको...और आने वाली होली की अग्रिम शुभकामनाएँ

Alpana Verma said...

'रिक्तता जलकलश की रही पूछती
तॄप्ति का कोई सन्देश दे दे अधर
ताकता था दिया क्या हो अंतिम चरण
जो कहानी लिखी थी गई रात भर'
--अद्भुत !!
बहुत ही अच्छी भावपूर्ण कविता है.

Shardula said...
This comment has been removed by the author.

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