लिखता हूँ प्रिय गीत तुम्हारे

परिभाषित जो हुआ नहीं है, शब्दों में ढल भाव ह्रदय का
मैं उसमे ही डूबा डूबा लिखता हूँ प्रिय गीत तुम्हारे

ढलती हुई निशा ने बन कर कुन्तल की इक अल्हड़ सी लट
जो कुछ् कहा अधर पर आकर छिटकी ऊषा की लाली से
अँगड़ाई ले उठीं हुई गंधें कपोल की पंखुड़ियों से
जो अनुबन्ध गईं तय कर कर थिरकी कानों की बाली से

मीत ! तुम्हारे चंचल नयनों के काजल की स्याही लेकर
ढाल रहा उनको गीतों में जितने छन्द हुए कजरारे

रही फ़िसलती एक ओढ़नी को जो उंगली ने समझाया
या फिर जो रंगीन हथेली करती गई हिनायें कोमल
नयनों के पाटल पर संवरे चित्र बता देते जो मन को
और संवारा है सपनों में, अभिलाषा ने बन कर कोंप


वे ही भेद छुपे जो मन में चेहरे पर प्रतिबिम्बित होते
उनको करता हुआ शब्द मैं, बिखरे हैं होकर रतनारे

अनायास करने लग जाती है चूड़ी कंगन से बातें
पायल को कर साज छेड़ता सरगम सहसा रँगा अलक्तक
असमंजस के गलियारे में भटके निश्चय और अनिश्चय
और पांव के नख की पड़ती द्वार धरा के रह रह दस्तक

गतिमय समय निरंतर करता परिवर्तित बनते दॄश्यों को
लेकिन यही चित्र बनते हैं मेरे मन पर सांझ सकारे

6 comments:

Udan Tashtari said...

वे ही भेद छुपे जो मन में चेहरे पर प्रतिबिम्बित होते
उनको करता हुआ शब्द मैं, बिखरे हैं होकर रतनारे


-अद्भुत गीत....शब्दविहिन प्रशंसक आवाक है!!

seema gupta said...

रही फ़िसलती एक ओढ़नी को जो उंगली ने समझाया
या फिर जो रंगीन हथेली करती गई हिनायें कोमल
नयनों के पाटल पर संवरे चित्र बता देते जो मन को
और संवारा है सपनों में, अभिलाषा ने बन कर कोंप
आपकी लेखनी हमेशा ही प्रभावित करती है.....अति सुन्दर गीत
regards

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

बहुत सुंदर गीत -आभार

नीरज गोस्वामी said...

मीत ! तुम्हारे चंचल नयनों के काजल की स्याही लेकर
ढाल रहा उनको गीतों में जितने छन्द हुए कजरारे

अहहहः...शब्द और भाव का ऐसा अनूठा प्रयोग आप के सिवा भला कौन कर सकता है...अद्भुत...अनोखा...लाजवाब...वाह...साक्षात् माँ सरस्वती के दर्शन होते हैं आपकी रचनाओं में...

नीरज

विनोद कुमार पांडेय said...

शब्द शब्द दिल जीत लेते है..मैं तो ज़ोर ज़ोर से पढ़ता हूँ आपका यह गीत बहुत बढ़िया लगा..
एक बेहतरीन कविता हमेशा की तरह ..धन्यवाद जी

Shar said...

परिभाषित जो हुआ नहीं है, शब्दों में ढल भाव ह्रदय का
मैं उसमे ही डूबा डूबा लिखता हूँ प्रिय गीत तुम्हारे

नयनों के पाटल पर संवरे चित्र बता देते ...

असमंजस के गलियारे में भटके निश्चय और अनिश्चय

गतिमय समय निरंतर करता परिवर्तित बनते दॄश्यों को
लेकिन यही चित्र बनते हैं मेरे मन पर सांझ सकारे

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