सांझ ढले घिरने लगती है आंखों में जब जब वीरानी
नैनीताली संदेशे जब खो जाते जाकर हल्द्वानी
संचित पत्रों के अक्षर जब धुंआ धुंआ हो रह जाते हैं
शेष न रहतीं गंधें उनमें जिन फूलों को किया निशानी
और टपकती है चन्दा से पीली सी बीमार रोशनी
आशाओं के पाखी अपने पंख कटा कर रह जाते हैं
दिन के पथ पर दिख पाता है कोई चिन्ह नहीं पांवों का
पगडंडी को विधवा करता है आभास तलक गांवों का
खत्म हो चुके पाथेयों की झोली भी छिनती हाथों से
जो चेहरा मिलता है, मिलता ओढ़े शून्यपत्र नामों का
छत को शीश ओढ़ लेने की अभिलाषाओं के सब जुगनू
उच्छवासों की गहरी आंधी में उड़ उड़ कर बह जाते हैं
जब संकल्प पूछने लगते प्रश्न स्वयं ही निष्ठाओं से
डांवाडोल आस्थाओं की जो विकल्प हों उन राहों से
पीढ़ी पीढ़ी मिली धरोहर भी जब बनती नहीं विरासत
लगता है कल्पों का बोझा जुड़ता है अशक्त कांधों से
असमंजस के पल सुरसा के मुख की तरह निरंतर बढ़ते
ढाढस के पल पवनपुत्र से बने सूक्ष्म ही रह जाते हैं
सूखी हुई नदी के तट का प्यास बुझाने का आश्वासन
सुधियों के दरवाजे को खड़काता है खोया अपनापन
आईने के बिम्ब धुंआसे, और धुंआसे हो जाते हैं
साथ निभाता नहीं संभल पाने का कोई भी संसाधन
तब हाथों से फ़िसल गये इक दर्पण की टूटी किरचों मे
सपने टुकड़े टुकड़े होकर अनायास ही ढह जाते हैं
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
जाते जाते सितम्बर ने ठिठक कर पीछे मुड़ कर देखा और हौले से मुस्कुराया. मेरी दृष्टि में घुले हुये प्रश्नों को देख कर वह फिर से मुस्कुरा दिया ...
10 comments:
:(
आज दूसरी दिशा है...ऐसा क्या हुआ??
फिर भी...
नैनीताली संदेशे जब खो जाते जाकर हल्द्वानी
-भूगोलिक संयोजन प्रभावित कर गया...
आपका ये गीत सिर-आँखों पे!
आप उन प्रतीकों और शिल्पों को लाते हैं जो दूसरों के लिये अनजान होते हैं । कोई सोच भी नहीं सकता कि ये प्रयोग भी किये जा सकते हैं । जैसे पवनपुत्र और हल्द्वानी वाले प्रयोग अनोखे हैं । बधाई
bahut hi badhiya likhate hai aap...
pahale ki tarah yah kavita bhi behad khubsurat....bahut achcha laga padh kar..bahut bahut dhanywaad
बहुत खूब भाई
इस गीत को पढ़ कर आपका एक पुराना गीत याद आया आज . . .
"आँसू की बून्दें तिरती रहीं निशा-वासर
थी सीपी किन्तु अभागन, बिल्कुल रिक्त रही
हर एक प्रश्न था पहले से कुछ अधिक कठिन
उत्तर की माला उलझी थी अव्यक्त रही
जो कुछ नकार था दिया किसी मद में आकर
वह बोध आज आँखों के आगे आता है
वह एक विरह का पल, जो केवल अपना है
गज़लों में गहरा अनायास हो जाता है"
आज 'शाम भी है धुवॉं धुवॉं' जैसा मन हो रहा था, जब आपकी कविता पढ़ी। मन ऑर भी डूवने लगा। डूब ही जाता पर आपका रचना शिल्प मन को तरंगित कर गया।
पंकज सुबीर जी से सहमत ! शुभकामनायें भाई जी !
'नैनीताली संदेशे…'
एकदम अनूठा प्रयोग।
सदैव की ही तरह अद्भुत।
Post a Comment