स्वप्न तुम्हारे आकर जब से चूम गये मेरी पलकों को
निंदिया के आँगन में तब से महकी है क्यारी गुलाब की
संध्या ने समेट ली थी जब बिछी हुई किरणों की चादर
यायावरी दिवस के पल सब लौटे थके, नीड़ को अपने
अम्बर ने लटका दीं विधु की विभा कमन्दें बना बना कर
आये उन पर उतर रात की अमराई से चल कर सपने
जो छू आये चित्र तुम्हारे वे आये मेरी खिड़की पर
दुहराते गाथायें सारी परी कथा वाली किताब की
धवल कपोतों के पंखों पर अटके हुए हवा के झोंके
रुक कर लगे देखने जितने चित्र पाटलों पर बन पाये
सपनों के गलियारे में जो चहलकदमियाँ किये जा रहे
चित्र तुम्हरे, से ले लेकर गीत प्रीत में भिगो सुनाये
जागी हुई हवायें तंद्रित होकर लगीं साथ में बहने
गंगा की धारा में लहरें उलझीं हैं आकर चिनाव की
चादर की सिकुड़न से करवट के जो मध्य रही है दूरी
सिमट गये कुछ चंचल सपने उसमें चुपके चुपके आकर
सांसो की कोमल सरगम पर अपना रंग चढ़ा कर गहरा
अलगोजा लग गये छेड़ने जल तरंग के साथ बजा कर
सरगम की स्वर लहरी पकड़े रहे झूमते सकल निशा में
बने लहर नभ की गंगा के धीमे से ठिठके बहाव की
आधी रात रात रानी के साथ महकता है जब बेला
तब उनकी अवगुंठित गंधों में थे डूबे और नहाये
अंतिम प्रहर रात का बरसा पिघल ओस की बून्दों में जब
तब हो उसमें सराबोर ये पलकों की कोरों पर आये
अलसाई अँगड़ाई के आँचल को थामे खड़े रहे हैं
छोड़ी नहीं किनारी पकड़ी नयनों पर बिछ गये लिहाफ़ की
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9 comments:
:)
खुबसुरत रचना....
स्वप्न तुम्हारे आकर जब से चूम गये मेरी पलकों को
निंदिया के आँगन में तब से महकी है क्यारी गुलाब की
प्रेम रस से सराबोर रचना ..!!
बहुत सुन्दर रचना है। आअकी सभी रचनायें लाजवाब होती हैं। धन्यवाद्
स्वप्न तुम्हारे आकर जब से चूम गये मेरी पलकों को
निंदिया के आँगन में तब से महकी है क्यारी गुलाब की
बहुत ही सुन्दर एवं बेहतरीन प्रस्तुति, आभार
जो छू आये चित्र तुम्हारे वे आये मेरी खिड़की पर
दुहराते गाथायें सारी परी कथा वाली किताब की
shandar,dilkash geet,sunder.
Ati soumy sundar manohari pranay geet.....Waah !!
आपका नितांत सुंदर "चित्र-गीत" देखा. Renaissance style painting या artefact की तरह है ये.
इतना सुन्दर ना लिखा करें!
"अम्बर ने लटका दीं विधु की विभा कमन्दें बना बना कर
आये उन पर उतर रात की अमराई से चल कर सपने
जो छू आये चित्र तुम्हारे वे आये मेरी खिड़की पर
दुहराते गाथायें सारी परी कथा वाली किताब की
धवल कपोतों के पंखों पर अटके हुए हवा के झोंके
रुक कर लगे देखने जितने चित्र पाटलों पर बन पाये
सपनों के गलियारे में जो चहलकदमियाँ किये जा रहे
चित्र तुम्हरे, से ले लेकर गीत प्रीत में भिगो सुनाये "
एक छोटा सा झूमर हुआ करता था हमारे पास, विशु के कमरे के लिए, उसमें सफ़ेद रेशमी धागों में क्रिस्टल के देवदूत थे, alternate चाँद, तारे और cranes थे. उसकी याद आ गयी ये पढ़ के!
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"गंगा की धारा में लहरें उलझीं हैं आकर चिनाव की "--- कभी सोचा नहीं ऐसा, पढ़ा भी नहीं.
उफ्फ, अब इस पे क्या कहें:" सिमट गये कुछ चंचल सपने उसमें चुपके चुपके आकर"
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"अंतिम प्रहर रात का बरसा पिघल ओस की बून्दों में जब
तब हो उसमें सराबोर ये पलकों की कोरों पर आये
अलसाई अँगड़ाई के आँचल को थामे खड़े रहे हैं
छोड़ी नहीं किनारी पकड़ी नयनों पर बिछ गये लिहाफ़ की"
-- इसके बारे में अभी कुछ ना कह सकूंगी.
स्वप्न तुम्हारे आकर जब से चूम गये मेरी पलकों को
निंदिया के आँगन में तब से महकी है क्यारी गुलाब की
बहुत बढ़िया उम्दा रचना राकेश जी ....
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