ज्यों पूर्णिमा को घिरीं अचानक घटायें श्यामल आ चन्द्रमा पे
बिखरते कुन्तल ने आज वैसे कपोल चूमे पिया तुम्हारे
ज्यों दूध, केसर घुले हुए में पड़ी परत हो इलायची की
या राधिका के बदन पे पड़ती हो श्याम परछईं श्याम की ही
ज्यों पर्वतों के हिमाच्छादित शिखर पे उमड़ें धुंये के बादल
दिवस के तीजे प्रहर में उतरे आ पालकी ढलती शाम की ही
ज्यों बाग में आ मधुप ने चुम्बित किये अधर कलियों के सुकोमल
कुछ वैसे चंचल चिकुर मचल कर अधर को चूमें पिया तुम्हारे
सुबह की पहली किरन ने झांका निशा की जैसे हटा के चादर
ज्यों चमके बिजली घनी घटाओं में जो कि उमड़ी हो सावनों में
हो चमकी यमुना नदी के तट पर थिरकती परछाईं ताजंमहली
या रास करती दिखे है गोपी नदी किनारे सघन वनों में
हटा के गहरा तना कुहासा हो खोलता पट उषा के दिनकर
सुबह की लाली आ केश छितरा अधर को चूमे पिया तुम्हारे
लिया दिशाओं ने आँज काजल हो जैसे चौदहवीं यामिनी को
या नभ की मंदाकिनी के तट पर घिरे हों आकर घने कुहासे
खिला हो नीरज अमावसी इक निशा के यौवन में मुस्कुराकर
या संगे मरमर को आबनूसी शिला में जड़कर कोई तराशे
अंधेरे मन की गहन गुफ़ा में छनी हो आकर के रश्मि कोई
हैं चित्र संवरे अजन्ता बन के, ह्रदय के पट पर पिया तुम्हारे
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नव वर्ष २०२४
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8 comments:
मैं अक्सर आता हूँ, पढ़ता हूँ, विस्मय विमुग्ध मौन रह जाता हूँ ।
इस ब्लॉग-जगत में गीतों का ऐसा चितेरा नहीं । आभार ।
बहुत ही सुन्दर व लाजवाब रचना। आपने हिन्दी शब्दो को बखूबी प्रयोग में लिया है। जिससे आपकी रचना उम्दा बन पड़ी। बहुत-बहुत बधाई
जबरदस्त!! अद्भुत. आनन्द के गोते लगाये अभिभूत हो.
इस ब्लॉग-जगत में गीतों का ऐसा चितेरा नहीं ।
aapki kai saari kavittaein padne ke baat himanshu ji ki is baat se poorntya sehmat...
अतिसौम्य सुन्दर श्रृंगार रस मन को अभिभूत कर गया....
अद्वितीय रचना..वाह !!!
कितनी अलंकृत, श्रृंगार रस भरी रचना है क्या कहूँ ! थोड़ा पढ़ा तो "चौदहवीं का चाँद हो या ..." वाला दृश्य सामने आ गया. फ़िर लगा सीधे यमुना तट पे, वृन्दावन पहुँच गए, फ़िर जैसे आगरा और फ़िर क्या कहें . . .! बहुत ही सुन्दर, शिष्ट और प्यारी रचना!! ऐसा लगा कि कोई रवि वर्मा जैसा चितेरा आ के paintings बना गया रूप माधुर्य की! कुछ चित्र साथ रह गए :
"या राधिका के ...
हो चमकी यमुना ...
या रास करती ...
हटा के गहरा ...
सुबह की लाली ...
लिया दिशाओं ने ...
या नभ की मंदाकिनी ...
खिला हो नीरज अमावसी ...
या संगे मरमर को आबनूसी शिला ...
अंधेरे मन की गहन गुफ़ा ...
हैं चित्र संवरे ... पिया तुम्हारे
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जाने क्यों ये पंक्ति साथ छोड़ नहीं रही:
दिवस के तीजे प्रहर में उतरे आ पालकी ढलती शाम की ही
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और ये पंक्ति बड़ी स्वादिष्ट लगी :)
ज्यों दूध, केसर घुले हुए में पड़ी परत हो इलायची की
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हर बार आपसे कुछ नया सीखने को मिलता है, इस बार सीखा "आबनूसी"... और "अमावसी नीरज:)"!!!
अगला गीत ?
कितनी भी शहद में डुबोएं लेखनी, पर अपने सारे अहसास कहाँ तक कह पायेंगे . . .
इतना अच्छा नहीं लिखा करते !
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