कसमसाते, छटपटाते स्वर गले के आ अधर पर
किन्तु जाने क्यों किसी भी गीत को गाते नहीं हैं
गीत बन गोविंद चढ़ते बाँसुरी पर जिन पलों में
वे सभी पल आज सहसा ही अपिरिचित हो गये है
प्रीत के पुंकेसरी कण जो उड़ाती थीं हवायें
आज वे चढ़ कर घटाओं के परों पर खो गये हैं
वादियों में शांत हो लेटी हुई पगडंडीयाँ अब
हैं गई कतरा, न देती पगतली पर दस्तकें भी
चिमनियों से उठ रहे अलसाये बल खाते धुँए में
गुंथ गई हैं हलचलों की सोई जागी करवटें भी
हाथ में लेकर कटोरा शब्द की लाठी संभाले
जो खड़ा है भाव उससे नैन मिल पाते नहीं हैं
थरथराती कल्पना की टूटती लेकर उड़ानें
फिर धराशायी हुई है भावना मन की अकेली
पंथ पनघट के विजन हैं हैं सभी चौपाल उजड़ी
शून्य में केवल खड़ी है देह की खेंडहर हवेली
उंगलियों के पोरुओं पर अक्षरों के चंद मनके
घूम फिर कर फिर उसी प्रारंभ पर आ रुक गये हैं
जो कभी तन कर खड़े थे देवदारों से बड़े बन
वे सभी संकल्प जाने क्यों अचानक झुक गये हैं
भेजती रहती निगाहें स्वप्न को अविरल निमंत्रण
पर क्षितिज पर धुंध में आकार बन पाते नहीं हैं
जल रही हैं नित अपेक्षायें दिये सी जगमगाती
आस के भ्रम को उगी किरणें सुबह की तोड़देतीं
साध करती है निरन्तर वैर सुधि के दर्पणों से
बिम्ब के आभास को परछाईं केवल ओढ़ लेती
खंड होते हैं खिलौने कांच के जब पत्थरों पर
तब ह्रदय के व्योम में सूरज हजारों फूट जाते
हाथ से फिसले हुए दिन, चाह होती थामने की
वह पहुँच से दूर होकर खिलखिलाकर मुँह चिढ़ाते
एक ही दिशि में चली हैं सामने फ़ैली डगर सब
और इन पर जो चले पग लौट फिर पाते नहीं हैं
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4 comments:
अद्भुत रचना!! इससे ज्यादा और कहने की हिम्मत नहीं. :)
हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.
कृप्या अपने किसी मित्र या परिवार के सदस्य का एक नया हिन्दी चिट्ठा शुरू करवा कर इस दिवस विशेष पर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार का संकल्प लिजिये.
जय हिन्दी!
आप के गीतों में भाषा का कसाव इतना मंजा हुआ है कि एक भी शब्द इधर से उधर् नहीं हो सकता.
हम तो आंखों से पढते हैं पर सीधा दिल में उतर जाता है.
सुन्दर रचना हेतु बधाई
वाह ! वाह ! वाह ! अद्वितीय....
गीत बन गोविंद चढ़ते बाँसुरी पर ...
हाथ में लेकर कटोरा शब्द की लाठी संभाले भाव...
शांत हो लेटी हुई पगडंडीयाँ ...
घूम फिर कर फिर उसी प्रारंभ पर आ रुक गये हैं
तब ह्रदय के व्योम में सूरज हजारों फूट जाते
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