चढ़ा नकाब व्यस्तताओं का निगल रहा है दिन दोपहरी
और समय के गलियारे में भटक गई कविता कल्याणी
थिरक रहे पांवों में पायल मौन रहे कब हो पाता है
अंधियारे के शब्द कोश में मिलता नहीं सूर्य का परिचय
काई जमे ताल के जल से प्रतिबिम्बित न किरन हो सकी
खुली हाथ की मुट्ठी में कब हो पाता है कुछ भी संचय
तो फिर उथली पोखर जैसे मन में उठे भाव की लहरें
संभव यह तो कभी कल्पना में भी नहीं हुआ पाषाणी
कमल पत्र के तुहिन कणों का हिम बन जाना सदा असम्भव
और मील के पत्थर कब कब तय कर पाते पथ की दूरी
दर्पण की मरमरी गोद में भरते कहां राई के दाने
कहो रंग क्या दोपहरी का कभी हो सका है सिन्दूरी
प्रतिपादित चाणक्य नियम से बंधी रही हो सारा जीवन
सरगम नहीं उंड़ेला करती विष से बुझी हुई वह वाणी
बदला करती नहीं उपेक्षा कभी अपेक्षाओं की चादर
अपना चेहरा ढक लेने से सत्य नहीं ढँक जाया करता
हर मौसम बासन्ती ही हो ये अभिलाषा अर्थहीन है
पतझर को आना ही है तो बिना नुलाये आया करता
गति का नाम निरन्तर चेतनता के संग में लिखा हुआ है
चाहे न चाहे वल्गायें स्वयं थाम लेती हैं पाणी
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5 comments:
तो फिर उथली पोखर जैसे मन में उठे भाव की लहरें
संभव यह तो कभी कल्पना में भी नहीं हुआ पाषाणी
-गज़ब कर डाला भाई झी इस रचना में..अभिव्यक्ति भावों की इस तरह..अभुत!!
अपना चेहरा ढक लेने से सत्य नहीं ढँक जाया करता
हर मौसम बासन्ती ही हो ये अभिलाषा अर्थहीन है
अद्भुत राकेश भाई...वाह...क्या कहूँ...हमेशा की तरह अभिभूत हूँ...
नीरज
प्रतिपादित चाणक्य नियम से बंधी रही हो सारा जीवन
सरगम नहीं उंड़ेला करती विष से बुझी हुई वह वाणी
अनोखी अभिव्यक्ति है भाव की...........शब्दों का उचित प्रयोग ही कवी को कवी से अलग करता है............उत्तम है आपका शब्द संसार
"चढ़ा नकाब ...गई कविता कल्याणी"
"अंधियारे के शब्द ...न किरन हो सकी"
"कमल पत्र के तुहिन ...कर पाते पथ की दूरी"
"प्रतिपादित चाणक्य ...बुझी हुई वह वाणी"
"बदला करती नहीं... ढँक जाया करता"
"चाहे न चाहे वल्गायें स्वयं थाम लेती हैं पाणी"
अद्वितीय ! अनुपम !
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"कहो रंग क्या दोपहरी का कभी हो सका है सिन्दूरी"
-- ये तो होता है कभी-कभी :)
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आपके गीत पढ़ते हैं, उन पे टिप्पणी करते हैं, आप कभी-कभी जवाब भी देते हैं, क्या कहूँ जाने कौन से पुण्यों का फल है ये !
थिरक रहे पांवों में पायल मौन रहे कब हो पाता है
अंधियारे के शब्द कोश में मिलता नहीं सूर्य का परिचय
काई जमे ताल के जल से प्रतिबिम्बित न किरन हो सकी
खुली हाथ की मुट्ठी में कब हो पाता है कुछ भी संचय
सुन्दर शब्दावली ......बहुत खूब.......!!
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