और तुम्हारा एक तकाजा
बुझे बुझे सरगम के सुर हैं
थके थके सारे नूपुर हैं
शब्दों का पिट गया दिवाला
कलम वगावय को आतुर है
भावों की लुट हई पोटली अनुभूति के कोष रिक्त हैं
और तकाजा एक तुम्हारा मैं इक नया गीत लिख डालूँ
अक्षर अक्षर बिखर गई हैं गाथाय्रं कुछ याद नहीं हैं
शीरीं तो हैं बहुत एक भी लेकिन पर फ़रहाद नहीं है
बाजीराव नहीं मिल पाया थकी ढूँढते है मस्तानी
इतिहासों की प्रेम कथायें किसने समझी किसने जानी
राजमुकुट के प्रत्याशी तो खडे हुए हैं पंक्ति बनाकर
तुम्ही बताओ सिंहासन पर मैं इनमें से किसे बिठा लूँ
महके हुए फूल उपवन से रह रह कर आवाज़ लगाते
मल्हारों के रथ पनघट पर रूक जायेंगे आते जाते
फागुन के बासन्ती रंग में छुपी हुईं पतझडी हवायें
बार बार अपनी ही धुन में एक पुरानी कथा सुनायें
माना है अनजान डगरिया, लेकिन दिशाचिन्ह अनगिनती
असमंजस में पडा हुआ हूँ, किसको छोडूँ किसे उठा लूँ
अलगोजे तो नहीं छेड़ता गूँज रहा कोई बाऊल स्वर
रह जाता घुल कर सितार में सरगम के स्रोतों का निर्झर
लग जाते हैं अब शब्दों पर पहरे नये, व्याकरण वाले
छन्द संवरता तो होठों पर ढलता नहीं सुरों में ढाले
गज़ल नज़्म मुक्तक रुबाईयां, सब ही मुझसे संबोधित हैं
तुम बोलो इनमें से किसको अभिव्यक्ति का सिला बना लूँ
और तुम्हारा एक तकाजा, मैं इक और गीत रच डालूँ
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9 comments:
:)
भाई राकेश खण्डेलवाल जी!
आपके ब्लाग पर पहली बार आया हूँ।
आपकी कविता मन को भा गयी।
सुन्दर रचना के लिए बधाई।
आप लिखते रहें।
एक प्रश्न भी है कि क्या आप
साहित्यकार श्री गुलाब खण्डेलवाल के
सुपुत्र ही हैं ना?
यदि नही तो कृपया बुरा न माने।
गुलाब खण्डेलवाल जी के साथ कई बार
हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की बैठकों में
सम्मिलित होने का सौभाग्य मुझे मिला है।
"राजमुकुट के प्रत्याशी तो खडे हुए हैं पंक्ति बनाकर
तुम्ही बताओ सिंहासन पर मैं इनमें से किसे बिठा लूँ"
मैं मुग्ध हूँ, मैं क्या कहूँ
यह जी करे पढ़ता रहूँ,
पढ़ता रहूँ, पढ़ता रहूँ ।
सुंदर भाव, सुंदर शब्द, सुंदर कविता।
लिखा हुआ यह गीत तुम्हारा,
मेरे मन को बहुत भा गया,
एक महक का झौका जैसे,
सारी बगिया को, महका गया।
धीरे धीरे राकेश जी आपकी रचनाओं का दीवाना होता जा रहा हूँ ..............
लाजवाब गीत
lajwaab ...maza aa gaya
RE:
"गज़ल नज़्म मुक्तक रुबाईयां, सब ही मुझसे संबोधित हैं
तुम बोलो इनमें से किसको अभिव्यक्ति का सिला बना लूँ
और तुम्हारा एक तकाजा, मैं इक और गीत रच डालूँ "
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यूँ ही नहीं मैं कहता रहता ग़ज़लें, गीतें, नज़्म कतील,
यह तो उनकी महफिल तक जाने का एक वसीला है।
--(कतील शिफाई)
बुझे बुझे सरगम के सुर हैं
थके थके सारे नूपुर हैं
शब्दों का पिट गया दिवाला
कलम वगावय को आतुर है
भावों की लुट हई पोटली अनुभूति के कोष रिक्त हैं
और तकाजा एक तुम्हारा मैं इक नया गीत लिख डालूँ
bahut sundar..aapki kavitaen ka khaas lahza hai. lay, bhav, bimb sab kuch taro taza aur ahsaah se guntha hua..
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