घुँघरुओं से बिछुड़ पैंजनी रह गई
मौन की रागिनी झनझनाती रही
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अव्यवस्थित सपन की सुई हाथ ले
करते तुरपाई हम थे रहे रात भर
चीथड़ों में फ़टे वस्त्र सा पर दिवस
हमको देता अंधेरा रहा कात कर
ज़िन्दगी थी सिरा तकलियों का रही
पूनियां दूर होती गईं वक्त की
सेमली फ़ाहे ओढ़े हुए थे निमिष
असलियत पत्थरों सी मगर सख्त थी
और पग की तली से विमुख राह हो
मोड़ पर ही नजर को चुराती रही
ग्रीष्म की एक ढलती हुई दोपहर
तोड़ती अपनी अंगड़ाईयाँ रह गई
जो बनीं ताल पर चन्द परछाईयां
ज़िन्दगी है वही, ये हवा कह गई
आस का रिक्त गुलदान ले हाथ में
कामना बाग में थी भटकती फ़िरी
ताकती रह गई चातकी प्यास नभ
बूंद झर कर नहीं स्वाति की इक गिरी
कंठ की गठरियाँ राह में लुट गईं
शब्द की आत्मा छटपटाती रही
दॄष्टि की उंगलियाँ खटखटाती रहीं
द्वार चेहरों के खुल न सके अजनबी
कोई आगे बढ़ा ही नहीं थामने
डोरियां नाम की थीं पतंगें कटी
एक पहचान संचित नहीं पास में
आईना हाथ फ़ैलाये कहता रहा
कल्पना का किला था गगन तक बना
बालुओं का महल होके ढहता रहा
और असमंजसों को लपेटे खड़ी
असलियत बस अँगूठा दिखाती रही
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7 comments:
वाह!! बहुत उम्दा गीत-आनन्द आ गया.
bahut hi accha geet likha hai aapne,aap kabhi hamare blog par aaiye ,aap ka swagat hai,follower ban kar hame sahyog dijiye:
http://meridrishtise.blogspot.com
आपकी कलम में जादू है
---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
बहुत बढ़िया लगा यह गीत ..शुक्रिया
अव्यवस्थित सपन की सुई हाथ ले
करते तुरपाई हम थे रहे रात भर
lajwab!!
बहुत बहुत सुन्दर, आपके शब्द मोती की तरह झरते है, ऐसे शब्दो से शुशोभित कविताओ को पढते हुये भला प्रशन्सा मे मेरे पास ही क्या? किसी के पास भी भला कोई शब्द हो सकते है बस जब भी पढता हू मा सरस्वती से कहता हू कि वे आपकी लेखनी को और बेहतरीन धार दे, हा शर्दुला जी का इसके लिये आभार व्यक्त करना भी कभी नही भूलता , उन्होने ही ऐसी बेमिसाल कविताओ के दर्शन का मार्ग दिखाया.
सम्मान सहित
सादर
राकेश
इस कविता को सीधे, "National archive of प्रतिनिधि बिम्ब" में भेज देना चाहिये। बहुत ही सुन्दर शब्द चित्र ! दुख की बात बस ये है कि मन एकदम उदास हो गया है पढ के। अब बहुत दिन हुये कोई खुशी का गीत ना गाया आपने गुरुदेव !
सादर ।।
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