नव वर्ष का प्रथम काव्य सुमन- माँ के चरणों में

मात शारदे ने जो अपनी वीणा के तारों को छेड़ा
आशीषों की सरगम बिखरी, ढली शब्द में गीत बन गई

शतदल की पाँखुर पाँखुर से, बिखरे हैं सहस्त्र शत अक्षर
और ओसकण के स्पर्शों से सँवर गईं मात्रायें पूरी
महके हैं परागकण, भावों में गंधों को पिरो गये हैं
छन्दों के कौशल ने अपनी दे दी उन्हें सहज मंजूरी

मां के हाथों की पुस्तक का पना एक खुला जिस क्षण से
मस्तक पर की लिखी पंक्तियां, इक स्वर्णिम संगीत बन गई

हंस वाहिनी के इंगित से शब्द संवरते मुक्ता बन कर
और परों की छुअन, भावना उनमें सहज पिरो जाती है
कलम उजागर कर देती है श्वेत श्याम अक्षर का अंतर
और नजर शब्दों को आकर प्राण सुरों का दे जाती है

माला के मनकों से होती प्रतिबिम्बित हर एक किरण को
छूकर फ़ैली हुई अमावस, विस्मॄत एक अतीत बन गई

शांत शुभ्र, श्वेताभ, सत्यमय भाषा की जननी ने अक्षर
को देकर स्वर संजीवित कर पग पग पर आल्हाद बिखेरा
छोर चूम उसके आंचल का गतिमय हुआ ज्ञान का रथ जब
अज्ञानों के अंधकार को छंटते देखा, हुआ सवेरा

एक बार उसकी अनुकम्पा के पारस ने जिसे छू लिया
वही लेखनी सन्दर्भों की इक अनुकरणीय रीत बन गई

9 comments:

पंकज सुबीर said...

नया साल आपकी लेखनी को ओर ऊंचाईयों पर ले जाये । मां शारदा का नेह वर्ष भर आपको उसी प्रकार मिलता रहे जिस प्रकार अभी तक मिल रहा है । आपकी कविताओं में शब्‍द, भाव, विचार सब्‍ उसी प्रकार समृद्ध रहें जैसे अभी तक हैं । आपको नव वर्ष की शुभकानायें ।

नीरज गोस्वामी said...

शांत शुभ्र, श्वेताभ, सत्यमय भाषा की जननी ने अक्षर
को देकर स्वर संजीवित कर पग पग पर आल्हाद बिखेरा
छोर चूम उसके आंचल का गतिमय हुआ ज्ञान का रथ जब
अज्ञानों के अंधकार को छंटते देखा, हुआ सवेरा
अद्भुत....इस वर्ष भी काव्य की रस धार आप की कलम से यूँ ही बहती रहे...
नीरज

mehek said...

bahut sundar naya saal mubarak

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आप को नववर्ष २००९ की हार्दिक शुभकामनाएं ।
वर्ष २००९ आपके लिए शुभ हो , मंगलमय हो ।

शतदल की पाँखुर पाँखुर से, बिखरे हैं सहस्त्र शत अक्षर
मां के हाथों की पुस्तक का पना एक खुला जिस क्षण से
मस्तक पर की लिखी पंक्तियां, इक स्वर्णिम संगीत बन गई

कंचन सिंह चौहान said...

नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं...!

Himanshu Pandey said...

मैं सम्मोहित होकर केवल पी रहा हूं इस कविता को. टिप्पणी नहीं दे रहा, अपनी रागात्मक अनुभूति को पहुंचा रहा हूं बस.
नये साल की हार्दिक शुभकामनायें.

गौतम राजऋषि said...

शांत शुभ्र, श्वेताभ, सत्यमय भाषा की जननी ने अक्षर
को देकर स्वर संजीवित कर पग पग पर आल्हाद बिखेरा
छोर चूम उसके आंचल का गतिमय हुआ ज्ञान का रथ जब
अज्ञानों के अंधकार को छंटते देखा, हुआ सवेरा.....इन सुंदर पंक्तियों साल की शुरूआत कराने की बहुत-बहुत धन्यवाद राकेश जी.नये साल की आपको समस्त शुभकामनायें

Shardula said...

वाह ! कितना सुन्दर!
गुरुजी, आपको और जगतजननी को प्रणाम !
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"माला के मनकों से होती प्रतिबिम्बित हर एक किरण को
छूकर फ़ैली हुई अमावस, विस्मॄत एक अतीत बन गई"
"छोर चूम उसके आंचल का गतिमय हुआ ज्ञान का रथ जब
अज्ञानों के अंधकार को छंटते देखा, हुआ सवेरा"

रिपुदमन पचौरी said...

राकेश जी, रचना बहुत सुन्दर है दो बार पढी, बहुत अच्छी लगी।
लिखते रहें।

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