दिन तो बिखरा उफ़नते हुए दूध सा

एक परिशिष्ट में सब समाहित हुए
शब्द जितने लिखे भूमिका के लिये
फ़्रेम ईजिल का सारे उन्हें पी गया
रंग जो थे सजे तूलिका के लिये

स्वप्न की बाँसुरी, नींद के तीर पर
इक नये राग में गुनगुनाती रही
बाँकुरी आस अपने शिरस्त्राण पर
खौर केसर का रह रह लगाती रही
चाँदनी की किरण की कमन्दें बना
चाह चलती रही चाँद के द्वार तक
कल्पना का क्षितिज संकुचित हो गया
वीथिका के न जा पाया उस पार तक

धूप की धूम्र उनको निगलती गई
थाल जितने सजे अर्चना के लिये
सरगमों ने किये कैद स्वर से सभी
बोल जितने उठे प्रार्थना के लिये

दिन तो बिखरा उफ़नते हुए दूध सा
रात अटकी रही दीप की लौ तले
सांझ कोटर में दुबकी हुई रह गई
कोई ढूँढ़े तो उसका पता न चले
पाखियों के परों की हवायें पकड़
जागते ही उठी भोर चलने लगी
दोपहर छान की ओर बढ़ती हुई
सीढियाँ चढ़ते चढ़ते उतरने लगी

व्याकरण ने नकारे सभी चिन्ह जो
सज के आये कभी मात्रा के लिये
एक बासी थकन बेड़ियाँ बन गई
पांव जब भी उठे यात्रा के लिये

बोतलों से खुली, इत्र सी उड़ गई
चांदनी की शपथ,राह के साथ की +
पीर सुलगी अगरबत्तियों की तरह
होंठ पर रह गई अनकही बात सी
चाह थी ज़िंदगी गीत हो प्रेम का
एक आधी लिखी सी ग़ज़ल रह गई
छंद की डोलियाँ अब न आती इधर
ये उजडती हुई वेदियाँ कह गईं

सीपियाँ मोतियों में बदल न सकीं
नीर कण जो सजे भावना के लिये
जिसमें रक्खे उसी पात्र में घुल गए
पुष्प जितने चुने साधना के लिये

6 comments:

seema gupta said...

सीपियाँ मोतियों में बदल न सकीं
नीर कण जो सजे भावना के लिये
जिसमें रक्खे उसी पात्र में घुल गए
पुष्प जितने चुने साधना के लिये
"बेहद सुंदर और सार्थक शब्द , दिल को छु जाने वाले .."

regards

गौतम राजऋषि said...

राकेश जी प्रणाम...दिनों बाद आया आज झांकने इस गीत-कलश में.कल ही संपन्न हुआ "अंधेरी रात का सूरज".पहली बार इतने विशाल गीत-संग्रह को छपे देखा है...अब तारीफ में कुछ लिखना तो हैसियत से बाहर की बात हो जायेगी.बस मैं डूबता-इतराता रहा और खुद का शब्द-सामर्थ्य बढ़ाता रहा....
"दिन तो बिखरा उफ़नते हुए दूध सा / रात अटकी रही दीप की लौ तले" इन दुर्लभ उपमाओं के रचियता को पुनः नमन

Dr. Amar Jyoti said...

'सांझ कोटर में दुबकी हुई रह गई…।'
अद्भुत! अनिर्वचनीय।

नीरज गोस्वामी said...

राकेश जी अब मेरे पास प्रशंशा के लिए शब्द नहीं बचे हैं...सिर्फ़ सर झुका कर नमन करता हूँ आपको इस विलक्षण रचना के लिए.
नीरज

Shardula said...

बहुत ही सुन्दर कविता है ! हर पंक्ति भाव भरी सीपी है । क्या उद्धर्त करें क्या छोडें ? बुद्धि ने कर दिया समर्पण ! इतनी प्रशंसा भी लिख सके, क्योंकि तुलसी बाबा कह गये हैं:
"सब जानत प्रभु प्रभुता सोई । तदपि कहें बिनु रहा ना कोई ।।"

Shar said...

दूध जब गिरता उफना के
बिना सूचना पाहुन आते :)
घुलें गुलाब जब जल में यूँ ही
ठंडक वे सबको पहुँचाते ।
==================
इत्र उड मौसमों को है सावन करे
धूपबत्ती हवाओं को पावन करे ।
है यही प्रार्थना कि हरेक वेदना
आपकी स्याही को और सुहावन करे ।

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...