प्राण का पाथेय पल पल क्षीण होता जा रहा है

शब्द कोई लिख नहीं पाये समय की हम शिला पर
प्राण का पाथेय पल पल क्षीण होता जा रहा है

नीड़ कोई दे न पाया चार पल विश्रांति वाले
राह सारे पी गई है पास के संचित उजाले
पांव के छाले पिघल कर कह गये जो पत्थरों से
बात वह मिलती नहीं अब, कोई कितना भी खंगाले

पेंजनी बोली नहीं आकर कभी नदिया किनारे
बाँसुरी पर गीत कोई युग युगों से गा रहा है

लिख गईं थीं रोशनी की सलवटों पर जो कहानी
शेष अब बाकी नहीं है कोई भी उनकी निशानी
तूलिकाऒं ने अंधेरों का रँगा था भाल जिससे
साथ है बस टूटती इक आस की ढलती जवानी

जीत कर बाजी ठठाता हँस रहा तम का दु:शासन
वर्तिका के चीर को पल पल निगलता जा रहा है

धुन्ध की परछाईयों ने चित्र जितने भी बनाये
डूब कर वे रह गये हैं बस कुहासों में नहाये
दर्पणों की चाँदनी को लग गया शायद ग्रहण है
बिम्ब बनते ही नहीं है चाहे जितना भी बनाये

खो गई आवाज़ की हर गूँज गहरी घटियों में
एक सन्नाटा घनेरा लौट कर बस आ रहा है

रात दिन सारे कटे हैं रश्मियों के तीर सहते
और आवारा हवाओं के झकोरों साथ बहते
होंठ पर ताले लगाये ज़िन्दगी के शासकों ने
हो नहीं संभव सका कुछ भी किसी से बात कहते

जो सुधा समझे हुए हम आचमन करते रहे हैं
वह गले को बन हलाहल नील करता जा रहा है

8 comments:

Dr. Amar Jyoti said...

मानसिक अवसाद का मर्मस्पर्शी व सँक्रामक चित्र। बधाई। मधुशाला के कुछ छन्दों की याद आ गई।

vijay kumar sappatti said...

aapki ye kavita dil ko choo gayi ..

bahut gahra likhte hai aap,

bahut badhai

vijay
poemsofvijay.blogspot.com

नीरज गोस्वामी said...

राकेश जी...गीता पढने की क्या जरूरत है...रोज आप की एक रचना पढ़ लो और जीवन सफल करलो...बस...
नीरज

Shardula said...

Bahut sunder aur marmsparshi kavita hai aaj ki! Bahut gahra jeevan darshan hai!

=======
"शब्द कोई लिख नहीं पाये समय की हम शिला पर"
Yeh jo aapka yah blog hai na, yeh ek open university hai hum jaise students ke liye. Ab aur kya shila pe shabd likhna baaki rah gaya hai guruji :)

aapka har shabd shila pe hi nahin, hradyon pe bhi likhe jaa rahe hain aap !

Saadar naman !

shardula

Puja Upadhyay said...
This comment has been removed by the author.
Puja Upadhyay said...

राकेश जी, आपकी कविताओं की क्या तारीफ़ करूँ कुछ समझ नहीं आता. अचानक शब्द बहुत छोटे लगने लगते हैं. बस नमन करती हूँ...आप बहुत अच्छा लिखते हैं. विरह की ये कविता अंतर्मन को स्पर्श करती है...छंदबद्ध कविता मुझे अपनेआप में किसी जादू से कम नहीं लगती, उसपर ऐसे भावः. इतना खूबसूरत मेल बहुत कम देखने को मिलता है. आपके ब्लॉग का follower बटन नहीं दिखा.

Puja Upadhyay said...

राकेश जी, आपकी कविताओं की क्या तारीफ़ करूँ कुछ समझ नहीं आता. अचानक शब्द बहुत छोटे लगने लगते हैं. बस नमन करती हूँ...आप बहुत अच्छा लिखते हैं. विरह की ये कविता अंतर्मन को स्पर्श करती है...छंदबद्ध कविता मुझे अपनेआप में किसी जादू से कम नहीं लगती, उसपर ऐसे भावः. इतना खूबसूरत मेल बहुत कम देखने को मिलता है. आपके ब्लॉग का follower बटन नहीं दिखा.

Puja Upadhyay said...
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