एक कंदील की हो गई रहजनी

स्वप्न सब सो गये सांझ की सेज पर
नैन बैठे रहे नींद के द्वार पर
राह भटका हुआ था कहीं रह गया
चाँद आया नहीं नीम की शाख पर

चाँदनी की सहेली खड़ी मोड़ पर
हाथ में एक कोरा निमंत्रण लिये
लिख न पाई पता, रोशनी के बिना
जुगनुओं के महज टिमटिमाये दिये
शेष चिंगारियां भी नहीं रह गईं
शीत के बुझ चुके एक आलाव में
हर लहर तीर के कोटरों में छुपी
सारी हलचल गई डूब तालाब में

रिक्त ही रह गईं पुष्प की प्यालियाँ
पाँखुरी के परिश्रम वॄथा हो गये
नभ से निकली तो थी ओस की बूँद पर
राह में रुक गई वो किसी तार पर

झाड़ियों के तले कसमसाती हुई
दूब के शुष्क ही रह गये फिर अधर
डोर थामे किरण की उतर न सका
एक तारा तनिक सी सुधा बाँह भर
स्याह चादर लपेटे हुए राह भी
पी गई जो कदम मार्ग में था बढ़ा
रोशनी को ग्रहण था लगाता हुआ
इक दिये का तला मोड़ पर हो खडा

शून्य पीता रहा मौन को ओक से
ओढ़ निस्तब्धता की दुशाला घनी .
सुर का पंछी न कोई उतर आ सका
बीच फैला हुआ फासला पार कर

न तो पहला दिखा और न आखिरी
हर सितारा गगन के परे रह गया
एक कंदील की हो गई रहजनी
कंपकंपाता हुआ इक निमिष कह गया
धुंध रचती रही व्यूह कोहरे से मिल
यों लगे अस्मिता खो चुकी हर दिशा
पोटली में छुपी रह गई भोर भी
देख विस्तार करती हुई यह निशा

हाथ संभव नहीं हाथ को देख ले
चक्र भी थम हया काल का ये लगे
कोई किश्ती नहीं सिन्धु गहरा बहुत
रोशनी का बसेरा है उस पार पर

12 comments:

सतीश पंचम said...

पिछली कविता की तरह यह भी सुंदर कविता रही।

Dr. Amar Jyoti said...

बहुत सुन्दर!

अमिताभ मीत said...

शून्य पीता रहा मौन को ओक से
ओढ़ निस्तब्धता की दुशाला घनी .
सुर का पंछी न कोई उतर आ सका
बीच फैला हुआ फासला पार कर

Kya kahuuN kavivar ?

रंजू भाटिया said...

रिक्त ही रह गईं पुष्प की प्यालियाँ
पाँखुरी के परिश्रम वॄथा हो गये
नभ से निकली तो थी ओस की बूँद पर
राह में रुक गई वो किसी तार पर


बहुत खूब लिखते हैं आप ..

पंकज सुबीर said...

राकेश जी अंधेरी रात का सूरज के विमोचन के पूर्व ही आप दूसरे की भूमिका तैयार कर रहे हैं । अपनी कलम को काला टीका लगा कर रखियेगा किसी दिन मेरी नज़र न लग जाये उस पर ।

Anonymous said...

स्वपन बींध गूँथे जो माला नई
तेरी मालन तेरे ही ह्रदय में रहे
जब अंधेरों की परछाई बढने लगे
आये तब प्रात:ज्योति के ले कर घडे

राजीव रंजन प्रसाद said...

बहुत ही अच्छी रचना है राकेश जी। पुस्तक प्रकाशन की भी बधाई स्वीकारें...

नीरज गोस्वामी said...

राकेश जी पंकज जी की बात का मैं अनुमोदन करता हूँ...सही है आप की लेखनी को किसी की भी नजर लग सकती है....क्या लिखते हैं आप...नमन आप को बारम्बार नमन...
नीरज

Satish Saxena said...

राकेश भाई !
आपकी रचनाएं हिन्दी का श्रंगार हैं , जो भविष्य में नवागंतुकों का मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी ! सादर

BrijmohanShrivastava said...

प्रिय खंडेलवाल जी =इत्तेफाक की बात है कि एक रचना पर जिस वक्त आपने टिप्पणी की उसी वक्त मैंने केवल चार मिनट का अंतर था =यह संयोंग मेरे लिए अमूल्य सावित हुआ और में आपकी सेवामें उपस्थित हो गया =सच मानिए उपस्थित भी हुआ और खो भी गया =चांदनी की सहेली रोशनी के अभाव में पता न लिख पाई ,डूब के होंठ सूखे रह गए , शून्य मौन को पीटा रहा = और कहाँ तक लिखू सर पूरी कविता की नकल हो जायेगी /मैं आपको जानता भी नहीं ,न मुझे आपसे कोई काम है ,इसलिए झूंठी चमचागिरी का तो सवाल ही नहीं है लेकिन में ये बात यकीन से कह सकता हूँ कि कोई विद्वान् या स्वम आप इसका अर्थ करें तो तीन सौ पेज भी कम पड़ेंगे /

Udan Tashtari said...

हाथ संभव नहीं हाथ को देख ले
चक्र भी थम हया काल का ये लगे
कोई किश्ती नहीं सिन्धु गहरा बहुत
रोशनी का बसेरा है उस पार पर


--वाह! बहुत सुन्दर.बहुत उम्दा,बधाई.

Shardula said...

एक कंदील की हो गई रहजनी

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