सोम गया, मंगल बुध बीते और रहा गुरु भी एकाकी
शुक्र शनि रवि, एक निमिष भी सुधियों वाली हवा न आई
उड़े कुन्तलों के सायों से नजर बचा कर गईं घटायें
फुलवारी की परछाईं से कन्नी काट, बहारें गुजरीं
सुर की गलियों को सरगम ने गर्दन जरा घुमा न देखा
बिछी रही पतझर के आंगन वाली धूल, धूप में उजरी
झंझाऒं का रोष बिखरता रहा रोज द्वारे चौबारे
जिसकी रही प्रतीक्षा, केवल आई नहीं वही पुरबाई
सावन की शाखों पर बादल आकर नहीं हिंडोले झूले
अमराई, आषाढ़ी स्पर्शों की अभिलाषा लेकर तरसी
कोयलिया के कंठ निबोली, रही घोलती अपने रस को
शहतूती माधुर्यों वाली कोई बदली इधर न बरसी
जाने क्या हो गया, निशा की काली कमली की कजराहट
किरण किरन कर निगल गई है, प्राची की चूनर अरुणाइ
झीलों की लहरों पर आकर तैरे नहीं हंस यादों के
नदिया के तट के पेड़ों पर बातें कोई करे न पाखी
नजरें द्वार खटखटाती हैं देखे और अदेखे सब ही
लेकिन कोई खिड़की तक भी पल्ले खोल नहीं है झांकी
अभिलाषा यों तो उड़ान ले, गई गगन से टकराने को
पंख धूप में झुलस गये तो मुँह की खाये वापस आई
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8 comments:
अभिलाषा यों तो उड़ान ले, गई गगन से टकराने को
पंख धूप में झुलस गये तो मुँह की खाये वापस आई
--अति सुन्दर, वाह!!! हमेशा की तरह आनन्द आ गया.
आदरणीय राकेश जी,
आपके बिम्ब और आपके शब्द बरबस की आपकी रचनाओं को वह उँचायी प्रदान करते हैं जहाँ समकालीन रचनाकारों में कम ही दृश्टिगिचर होते हैं।
"उड़े कुन्तलों के सायों से नजर बचा कर गईं घटायें"
"कोयलिया के कंठ निबोली, रही घोलती अपने रस को
शहतूती माधुर्यों वाली कोई बदली इधर न बरसी"
"अभिलाषा यों तो उड़ान ले, गई गगन से टकराने को
पंख धूप में झुलस गये तो मुँह की खाये वापस आई"
***राजीव रंजन प्रसाद
"अभिलाषा यों तो उड़ान ले, गई गगन से टकराने को
पंख धूप में झुलस गये तो मुँह की खाये वापस आई"
क्या लाईन लिखी हैं, मजा आ गया
सावन की शाखों पर बादल आकर नहीं हिंडोले झूले
अमराई, आषाढ़ी स्पर्शों की अभिलाषा लेकर तरसी
कोयलिया के कंठ निबोली, रही घोलती अपने रस को
शहतूती माधुर्यों वाली कोई बदली इधर न बरसी
बहुत सुंदर लिखा है राकेश जी आपने ..अमराई ,सावन के झूले ,और बदरी बिम्ब खूब बन पढ़े हैं इस रचना में ..
राकेश भाई
विगत कुछ दिनों से जयपुर गया हुआ था कल ही लौटा हूँ....इस बार प्रण किया था की लैपटॉप का लैप बंद ही रखूँगा उसके दुष्परिणाम स्वरुप आप की अद्भुत रचनाओं का रसपान नहीं कर पाया....अब वापस लौट कर भरपाई कर रहा हूँ और पढ़ते पढ़ते ये भी सोच रहा हूँ की आईन्दा इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण प्रण नहीं किया करूँगा...
विलक्षण बिम्बों से सजी आप की ये और पिछली रचनाएँ कमाल की हैं...मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
नीरज
बहुत अच्छा लिखा है. सस्नेह
सावन की शाखों पर बादल आकर नहीं हिंडोले झूले
अमराई, आषाढ़ी स्पर्शों की अभिलाषा लेकर तरसी
कोयलिया के कंठ निबोली, रही घोलती अपने रस को
शहतूती माधुर्यों वाली कोई बदली इधर न बरसी
अति ,अति सुन्दर,
शुक्र शनि रवि, एक निमिष भी सुधियों वाली हवा न आई !
Hum se koi pooche :(
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