नीर की बून्द को तूलिका में पिरो

नीर की बूंद को तूलिका में पिरो
रात में रंग भरती रही चाँदनी

एक इस बून्द को ये विदित कब हुआ
गेह से साथ कितने निमिष का रहे
छोड़ दहलीज को जब चले तो भला
कौन सी धार के साथ मिल कर बहे
जाये मंदिर, रहे आचमन के लिये
एक खारे समन्दर में जा लीन हो
छलछलाये सुलगती हुई पीर में
या कि उमड़े सपन जब भी रंगीन हो

चूड़ियों के सिरे पर टिकी रो पड़े
या कि मुस्काये सिन्दूर संग मानिनी

ओस बन कर गिरे फूल के पात पर
बन के सिहरन कली के बदन में जगे
सीपियों में सजे मोतियों सी संवर
ज्योति बन कर किसी साधना को रँगे
बन हलाहल भरे कंठ में नीलिमा
तॄप्त कर दे कोई प्यास जलती हुई
प्राण संचार दे इक बियावान में
आस बन कर घटा में उमड़ती हुई

वह उमड़ती कभी तोड़ गिरिबन्ध को
तो कभी छेड़ती रागमय रागिनी

चित्रकारी करे, कैनवस कर धरा
रख नियंत्रण चले वक्त की चाल पर
सॄष्टि का पूर्ण आधार बन कर रहे
लिख कहानी अमिट काल के भाल पर
मिल मलय में चढ़े शीश पर ईश के
और प्रक्षाल दे पाहुने पांव को
पनघटॊं की खनकती बने पैंजनी
उग रही भोर में, ढल रही शाम को

सूक्ष्म से एक विस्तार पा कर चले
ज़िन्दगी की बनी ये हुई स्वामिनी

8 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

आदरणीय राकेश जी,


रचना की रवानगी नें प्रफुल्लित कर दिया। इतने पिरोये हुए शब्द कि बरबस ही तरन्नुम में बार बार पढने की इच्छा होती है। भावनाओं का तो आपके शब्द सूक्षतम चित्रण करते हैं..

नीर की बूंद को तूलिका में पिरो
रात में रंग भरती रही चाँदनी

***राजीव रंजन प्रसाद

seema gupta said...

कौन सी धार के साथ मिल कर बहे
जाये मंदिर, रहे आचमन के लिये
एक खारे समन्दर में जा लीन हो
छलछलाये सुलगती हुई पीर में
या कि उमड़े सपन जब भी रंगीन हो
"kmal kee abheevyktee, very inspiring and touching"
Regards

Anil Pusadkar said...

Rakesh jee aapki shabd-maala me piroya gaya ek-ek shabd pushp aapki kalpanaon ke rang aapki bhavnaavon ki khushboo ka ehsas kara deta hai,shabdo ke jadoo ka asar ise bar-bar padhne ko mazboor kar raha hai.bahut bahut badhai neer ki boond ko tulika me piro kar banaye gaye shabd-chitra ki

योगेन्द्र मौदगिल said...

चित्रकारी करे, कैनवस कर धरा
रख नियंत्रण चले वक्त की चाल पर
सॄष्टि का पूर्ण आधार बन कर रहे
लिख कहानी अमिट काल के भाल पर
मिल मलय में चढ़े शीश पर ईश के
और प्रक्षाल दे पाहुने पांव को
पनघटॊं की खनकती बने पैंजनी
उग रही भोर में, ढल रही शाम को

kya baat hai bhai ji
sahaj anand se paripoorn saarthak geet. BADHAI

रंजू भाटिया said...

चित्रकारी करे, कैनवस कर धरा
रख नियंत्रण चले वक्त की चाल पर
सॄष्टि का पूर्ण आधार बन कर रहे
लिख कहानी अमिट काल के भाल पर
मिल मलय में चढ़े शीश पर ईश के
और प्रक्षाल दे पाहुने पांव को
पनघटॊं की खनकती बने पैंजनी

सुंदर शब्द चित्र है यह ..

कंचन सिंह चौहान said...

ओस बन कर गिरे फूल के पात पर
बन के सिहरन कली के बदन में जगे
सीपियों में सजे मोतियों सी संवर
ज्योति बन कर किसी साधना को रँगे
बन हलाहल भरे कंठ में नीलिमा
तॄप्त कर दे कोई प्यास जलती हुई
प्राण संचार दे इक बियावान में
आस बन कर घटा में उमड़ती हुई

वह उमड़ती कभी तोड़ गिरिबन्ध को
तो कभी छेड़ती रागमय रागिनी

sunadar darshan

Advocate Rashmi saurana said...

bhut hi khubsurat kavita. badhai ho. jari rhe.

Udan Tashtari said...

छोड़ दहलीज को जब चले तो भला
कौन सी धार के साथ मिल कर बहे
जाये मंदिर, रहे आचमन के लिये
एक खारे समन्दर में जा लीन हो
छलछलाये सुलगती हुई पीर में
या कि उमड़े सपन जब भी रंगीन हो

-वाह! अद्भुत रचना!! बहुत सुन्दर.

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