कर रही थी तकाजा निरन्तर कलम
लिख रखूँ मैं नियम चन्द व्यवहार के
धड़कनें आज विद्रोह करने लगीं
तय किया ताल के साथ अब तक सफ़र
सांस की सहचरी बन चली हैं सदा
कोई अपनी नहीं थी बनी रहगुजर
आज नेतॄत्व की कामनायें लिये
पंथ अपना स्वयं ही बनाने लगीं
सांस आवाज़ देती हुई रह गई,
मुड़ के देखा, अंगूठा दिखाने लगीं
और गाता रहा एक भिक्षुक ह्रदय
गीत, कर जोड़ कर उनकी मनुहार के
सांस ने तो किया है समर्पण मगर
अपनी ज़िद पे अड़ी, कुछ भी मानी नहीं
हो विलग कोई अस्तित्व उनका नहीं
सत्य थी बात पर उनने जानी नहीं
कब हुई देह परछाईयों से अलग
कब विलग हो रहा फूल, रसगंध से
सब ही सम्झा थके, मानती ही नहीं
डोर ये है बँधी एक अनुबन्ध से
उँगलियाँ आज अपनी छुड़ा कर चलीं
चेतना के झनकते हुए तार से
आज जन्मांतरों की शपथ भूलकर
चाहती हैं लिखें इक कहानी नई
दूर कितनी चली धार लेकिन, अहो
तोड़ कर बन्धनों को उफ़नती हुई
अग्नि, ईधन बिना शेष कब रह सकी
सीप मोती अकेले कहां बुन सके
चाह है ज़िद को छोड़ें जरा एक पल
और सच्चाई को गौर से सुन सके
एक ज़िद ही निमिष में मिटा डालती
साये फ़ैले घने एक विस्तार के
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5 comments:
गजब....अद्भुत!!!
'
आज की दोनों रचनाऐं...यह और इसके बाद की...वीर रस की ही कहलांई. हा हा!!!! :)
आदरणीय राकेश जी..
आपकी रचनाओं की गहराई एसी है कि मन डूबे बिना नहीं रहता। मैंने तो आपकी रचनाओं का संकलन बना रखा है और उन्हे बार बार पढ कर एकलब्य की भाँति आपसे ही गीत लिखना सीख रहा हूँ..
आज जन्मांतरों की शपथ भूलकर
चाहती हैं लिखें इक कहानी नई
दूर कितनी चली धार लेकिन, अहो
तोड़ कर बन्धनों को उफ़नती हुई
अग्नि, ईधन बिना शेष कब रह सकी
सीप मोती अकेले कहां बुन सके
चाह है ज़िद को छोड़ें जरा एक पल
और सच्चाई को गौर से सुन सके
***राजीव रंजन प्रसाद
www.rajeevnhpc.blogspot.com
www.kuhukakona.blogspot.com
राकेश जी आप बहुत अच्छा लिखते है ...
सांस ने तो किया है समर्पण मगर
अपनी ज़िद पे अड़ी, कुछ भी मानी नहीं
हो विलग कोई अस्तित्व उनका नहीं
सत्य थी बात पर उनने जानी नहीं
बहुत अदभुत
aapke geeton kee srltaa trltaa ghntaa mn moh letee hai likhte rhen
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