शब्दों का संयोजन यों तो अधरों से हर बार बहा है
लेकिन हमको ज्ञात नहीं है, कभी कभी हम क्या गाते हैं
चाहत तो बढ़ती हैं नभ में उमड़े हुए धुँए के जैसी
दिशाहीन विस्तारित होतीं फिर सहसा छितरा जाती हैं
बिखरी हुई आस की किरचें,चुनते चुनते थकी उंगलियाँ
गुलदानों में फूल एक भी रखने में सकुचा जाती हैं
सौगन्धों ने सम्बन्धों के जितने भी अनुबन्ध लिखे थे
दिनमानों के झरते झरते वे सब धूमिल हो जाते हैं
उगती हुई धूप पी जाती खिलते हुए फूल सपनों के
रिश्तों के सूखे पत्तों को हवा उड़ा कर ले जाती है
बरसों का संचय हर लेती, पल की एक बदलती करवट
और पास की खाली झोली फिर से खाली रह जाती है
शब्दों के आकॄति से लेकर सुर में ढलने तक की दूरी
तय करते करते शब्दों के अक्सर अर्थ बदल जाते हैं
टपकी हुई तिमिर की बूँदें भर देतीं जब दिन का प्याला
तब सुधियों के एकाकी पल अपनेपन से कट जाते हैं
पिछवाड़े की यादों वाली झाड़ी से उड़ उड़ कर जुगनू
तन्द्राओं के सूनेपन में कोई हलचल भर जाते हैं
तारों की छाया आँखों के परदे पर इक चित्र बनाये
इससे पहले ही कूची के सारे रंग बिखर जाते हैं
बन्द किताबों में र हते हैं उठे हुए प्रश्नों के उत्तर
फिर भी कट कर सन्दर्भों से रह रह प्रश्न उभर आते हैं
नजरों के बौनेपन को तो करती अस्वीकार चेतना
अहम अस्मि के पंख लगा कर स्वर के पंछी उड़ जाते हैं
झुके हुए शीशों की परिभाषा से वंचित हैं जो काँधे
अधिक नहीं वे तने शीश का अपना बोझा ढो पाते हैं
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9 comments:
सौगन्धों ने सम्बन्धों के जितने भी अनुबन्ध लिखे थे
दिनमानों के झरते झरते वे सब धूमिल हो जाते हैं
और
झुके हुए शीशों की परिभाषा से वंचित हैं जो काँधे
अधिक नहीं वे तने शीश का अपना बोझा ढो पाते हैं
...आहह्ह!! बोलूँ कि वाह्ह्ह!!!... क्या बात है..जबरदस्त!! आनन्द आ गया. आपकी लेखनी को नमन!!! जय हो, महाप्रभु, आपकी.
...शब्दों के अर्थ अक्सर बदल जाते हैं...... क्या बताऊ इस रचना की प्रसंशा में मुझे शब्द ही नहीं मिल रहें है...
सम्मान्य बहुत प्रभावी रचना है आपकी...समर्पित रहिये...हमेशा पढूंगा ....
तारों की छाया आँखों के परदे पर इक चित्र बनाये
इससे पहले ही कूची के सारे रंग बिखर जाते हैं.
प्रभावी रचना है.
bahut sundar abhivyakti hai . badhai .
"शब्दो को शब्द खीचते है
शब्दो से शब्द खिचते है
शब्दो मे शब्द होते है
निशब्द फिर भी शब्द होते है "
aap ki rachna padh kar bas yahee kyaal aaya
बहुत बेहतरीन रचना है।बधाई स्वीकारें।
टपकी हुई तिमिर की बूँदें भर देतीं जब दिन का प्याला
तब सुधियों के एकाकी पल अपनेपन से कट जाते हैं
पिछवाड़े की यादों वाली झाड़ी से उड़ उड़ कर जुगनू
तन्द्राओं के सूनेपन में कोई हलचल भर जाते हैं
"पिछवाड़े की यादों वाली झाड़ी से उड़ उड़ कर जुगनू
तन्द्राओं के सूनेपन में कोई हलचल भर जाते हैं"
बड़ी सुंदर पंक्तियाँ हैं, बहुत सुंदर उपमा।
हमेशा की तरह सुन्दर !!!!!!!
सुन्दर....
-रिपुदमन
शब्दों के आकॄति से लेकर सुर में ढलने तक की दूरी
तय करते करते शब्दों के अक्सर अर्थ बदल जाते हैं
बहुत बहुत सुंदर और दिल को मोह लेने वाली रचना है .लिखते रहे
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