इक अधूरी गज़ल गुनगुनाते रहे

छाँह तो पी गये, वॄक्ष पथ के स्वयं
धूप हिस्सा हमारा, बताते रहे
हम अवनिका पकड़ कर खड़े रह गय
दॄश्य जो भी मिला, वे चुराते रहे

राह भटका रहा पग उठा राह में
होंठ पर मौन बैठी रही बाँसुरी
फूल अक्षत बिखरते रहे थाल से
भर नहीं पाई संकल्प की आँजुरी
सिन्धु था सामने खिलखिलाता हुआ
बाँह अपनी पसारे हुए था खड़ा
पर अनिश्चय का पल लंगरों के लिए
बोझ, अपनी ज़िदों पे रहा है अड़ा

हाशिये से परे हो खड़े हम रहे
पॄष्ठ पर वाक्य थे झिलमिलाते रहे
यज्ञ में जो हुआ शेष, वह स्वर लिये
इक अधूरी गज़ल गुनगुनाते रहे

थे निमंत्रण रहे भेजते, सावनी
मेघ आ जायेंगे पनघटों के लिये
किन्तु शायद पता था गलत लिख गया
आये आषाढ़ घन सिर्फ़ तॄष्णा लिये
स्वर बना कंठ का आज सुकरात सा
भब्द प्याले भरा छलछलाता रहा
आंख का स्वप्न था इन्द्रधनुषी नहीं,
एक धुँआ वहाँ छटपटाता रहा

और हम दंश पर दंश सहते हुए
दूध ला पंचमी को पिलाते रहे
बीन के काँपते राग को थाम कर
मौन स्वर से कहानी सुनाते रहे

पीठ पर पीढ़ियों के सपन से भरी
एक गठरी रही बोझ बनती हुई
उंगलियों के सिरों से परे ही रही
हर किरन जो उगी, याकि ढलती हुई
किसलिये क्या कहां कौन किसके लिये
प्रश्न से युद्ध में जूझते रह गये
भूल कर नाम अपना, भटकते हुए
अर्थ, अपना पता पूछते रह गये

धूल उड़ती हुई जो रही सामने
शीश, चन्दन बना कर लगाते रहे
जो कि आधा लिखा रह गया था कभी
गीत बस एक वह गुनगुनाते रहे

10 comments:

Udan Tashtari said...

क्या गजब कर रहे हैं महाराज!! बहुत ही उम्दा..गा उठने को जी चाहता है..वाह!! वाह!!

दिनेश पारते said...

राकेशजी, आप कहाँ से ढूँढ्ते हैं इतने अनछुये बिम्ब? बहुत ही सुन्दर !
साधुवाद !
-
दिनेश पारते

रंजू भाटिया said...

थे निमंत्रण रहे भेजते, सावनी
मेघ आ जायेंगे पनघटों के लिये
किन्तु शायद पता था गलत लिख गया
आये आषाढ़ घन सिर्फ़ तॄष्णा लिये
स्वर बना कंठ का आज सुकरात सा
भब्द प्याले भरा छलछलाता रहा
आंख का स्वप्न था इन्द्रधनुषी नहीं,
एक धुँआ वहाँ छटपटाता रहा

बहुत खूब ....बहुत सुंदर

परमजीत सिहँ बाली said...

राकेश जी,बहुत-बहुत बढिया रचना है।पढ कर आनंद आ गया।

और हम दंश पर दंश सहते हुए
दूध ला पंचमी को पिलाते रहे
बीन के काँपते राग को थाम कर
मौन स्वर से कहानी सुनाते रहे

योगेन्द्र मौदगिल said...

बहुत सुन्दर गीत है बधाई स्वीकारें

योगेन्द्र मौदगिल said...

बहुत सुन्दर गीत है बधाई स्वीकारें

पारुल "पुखराज" said...

udaas par bahut sundar

Sajeev said...

इक अधूरी गज़ल गुनगुनाते रहे.... लाजवाब...

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आपकी कविता प्रवाहमयी
जब जब बहती है,
हम काव्य मँदाकिनी मेँ
शीतल हो उठते हैँ
बहती रहे ये वैतरणी .
.शुभेच्छा सह:
- लावण्या

Satish Saxena said...

यह रचना बेहद खूबसूरत है , गुनगुनाने का दिल करता है !

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