स्वप्न पलकों से टपका किये रात भर
हाथ में एक भी किन्तु आया नहीं
गीत लिखता रहा भोर से सांझ तक
आपने एक भी गुनगुनाया नहीं
एक नीहारिका की बगल से उठे
पार मंदाकिनी के चले थे सपन
चाँद की नाव में बैठ कर थे तिरे
चप्पुओं में संजो चाँदनी की किरन
नींद की इक लहर पर फ़िसलते हुए
नैन झीलों के तट पर रुके चार पल
खूंटियों पर टँगा कैनवस थाम ले
इससे पहले ही पलकों से भागे निकल
मैं लिये इन्द्रधनुषी खड़ा कूचियां
रंग से एक भी बांध पाया नहीं
भाव मन की तराई में वनफूल से
खिल रहे थे घने, मुस्कुराते हुए
नैन पगडंडियों पर बिछे थे हुए
शब्द को देखते आते जाते हुए
राह में छोड़ सांचे, कदम जो गये
उनके, अनुरूप ढलते रहे हैं सभी
चाही अपनी नहीं एक पल अस्मिता
कोई अध्याय खोला नया न कभी
इसलिये उनको अपना कहूँ ? न कहूँ
सोचते मैं थका, जान पाया नहीं
प्रीत की गंध में डूब संवरा हुआ
शब्द निखरा कि जैसे कली हो सुमन
हर घड़ी साथ में हमकदम हो चली
एक अनजान सुखदाई कोमल छुअन
रंग सिन्दूर के जब गगन रँग गये
आस आई नई रश्मियों में ढली
आपके कंठ की ओस में भीग कर
स्वर्ण पहने मेरे गीत की हर कली
छू न सरगम सकी शब्द की डोरियाँ
और संगीत ने सुर सजाया नहीं
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7 comments:
गीत लिखता रहा भोर से सांझ तक
आपने एक भी गुनगुनाया नहीं
??? :)
-बहुत सुन्दर गीत!!
बहुत सुन्दर !!!
राकेश जी,
बहुत ही भावपूर्ण पंक्तियॉं हैं।
बधाई स्वीकार करें।
अंतिम दो पंक्तियों में मुझे कुछ विरोधभास लगा।
प्रीत की गंध में डूब संवरा हुआ
शब्द निखरा कि जैसे कली हो सुमन
हर घड़ी साथ में हमकदम हो चली
एक अनजान सुखदाई कोमल छुअन
रंग सिन्दूर के जब गगन रँग गये
आस आई नई रश्मियों में ढली
हर लफ्ज़ खुबसूरत है .गुनगुनाने की कोशिश की .पर आवाज़ कम जाती है इन लफ्जों के आगे ..:) बेहद खुबसूरत
अद्भुत भाव....वाह...वा...और क्या कहूँ?
नीरज
नींद की इक लहर पर फ़िसलते हुए
नैन झीलों के तट पर रुके चार पल
खूंटियों पर टँगा कैनवस थाम ले
इससे पहले ही पलकों से भागे निकल
kya baat hai...bahut khoobsurat geet.
राकेश जी
बहुत बढ़िया लिखा है-
प्रीत की गंध में डूब संवरा हुआ
शब्द निखरा कि जैसे कली हो सुमन
हर घड़ी साथ में हमकदम हो चली
एक अनजान सुखदाई कोमल छुअन
रंग सिन्दूर के जब गगन रँग गये
बधाई।
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