हम गीतों के गलियारे में संध्या भोर दुपहरी भटके
कंठ न ऐसा मिला किन्तु जो गीतों को कोई स्वर देता
छंदों की टहनी पर हमने अलंकार के फूल उगाये
और लक्षणा की पांखुर पर, ओस व्यंजना बना सजाये
छंदों की छैनी से हमने शिल्प तराशे गज़ल-नज़्म के
वन्दनवारी अशआरों से द्वार द्वार पर चित्र बनाये
किन्तु न सरगम की क्यारी में फूट सके रागों के अंकुर
एक एक कर सब युग बीते, क्या सतयुग, क्या द्वापर त्रेता
सारंगी ने अलगोजे की बांह थाम कर जो कुछ गाया
जलतरंग पर बांसुरिया ने जो कदम्ब के तले बजाया
वह इक सुर जो भटक गया है चौराहों के चक्रव्यूह में
जिसे नाद की चन्द्र-वीथि में शंख-ध्वनि ने नित्य बजाया
उसी एक सुर की तलाश में अलख जगाया हर द्वारे पर
किन्तु न पट को खोल सका है वह इक सुर-संदेश प्रणेता
बार बार खोली है हमने अपनी स्मॄतियों की मंजूषा
संध्या की अँगनाई में हम करते हैं आमंत्रित ऊषा
विद्यापति के, वरदाई के पदचिन्हों का किया अनुसरण
किन्तु न बदली लेशमात्र भी, जो इक बार बन गई भूषा
एक इशारे से उंगली के जो दे देता सही दिशायें
नहीं हुआ संभव वह मांझी, हमको अनुगामी कर लेता
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5 comments:
बार बार खोली है हमने अपनी स्मॄतियों की मंजूषा
संध्या की अँगनाई में हम करते हैं आमंत्रित ऊषा
विद्यापति के, वरदाई के पदचिन्हों का किया अनुसरण
किन्तु न बदली लेशमात्र भी, जो इक बार बन गई भूषा
हमेशा की तरह बहुत सुंदर राकेश जी ..सुंदर लिखा है आपने
सारंगी ने अलगोजे की बांह थाम कर जो कुछ गाया
जलतरंग पर बांसुरिया ने जो कदम्ब के तले बजाया
वह इक सुर जो भटक गया है चौराहों के चक्रव्यूह में
जिसे नाद की चन्द्र-वीथि में शंख-ध्वनि ने नित्य बजाया
waah
गीतों के गलियारे में भटकते रहिये और इसी तरह सुदर रचनाऍं परोसते रहिये। बधाई।
छंदों की टहनी पर हमने अलंकार के फूल उगाये
और लक्षणा की पांखुर पर, ओस व्यंजना बना सजाये
छंदों की छैनी से हमने शिल्प तराशे गज़ल-नज़्म के
वन्दनवारी अशआरों से द्वार द्वार पर चित्र बनाये
राकेश जी....अद्भुत....विस्मयकारी शब्दों का गुम्फन...कहाँ से और कैसे लाते हैं आप ऐसे शब्द और भाव... चमत्कृत हूँ...और नतमस्तक भी.
नीरज
Adbhut geet-Vaah!! Kuch bhi aapki kalam ke aas paas bhi nahi.
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